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डॉ. वेदप्रताप वैदिक का कॉलम:रायपुर अधिवेशन को देखकर लगा कि कांग्रेस पहले जहां खड़ी थी, आज भी वहीं मौजूद है

3 महीने पहले
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष - Dainik Bhaskar
डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष

राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा के बाद तीन महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक तो पूर्वोत्तर सीमांत के तीन राज्यों के चुनाव! दूसरी, रायपुर में कांग्रेस अधिवेशन और तीसरा, राहुल की लंदन-यात्रा! क्या तीनों से कांग्रेस और राहुल की पकड़ देश में बढ़ी है? जहां तक भारत-जोड़ो का सवाल है, उससे भारत कितना जुड़ा है, यह तो राहुल को ही पता होगा, लेकिन यह पक्का है कि इससे राहुल का आत्म-शिक्षण काफी हुआ होगा।

उन्हें पहली बार देश के जन-सामान्य से मिलने और भारत को जानने-पहचानने का मौका इस यात्रा ने दिया है। लेकिन तीनों घटनाओं पर यात्रा का कोई खास असर दिखा नहीं। तीनों पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा का डंका बज गया और कांग्रेस फिसड्डी बन गई।

कांग्रेस की कोशिश रही कि भाजपा के विरुद्ध साम्प्रदायिकता का पत्ता फेंके, लेकिन वह भी धरा रह गया। ईसाई और आदिवासी इलाकों में भी कांग्रेस पीछे रह गई। इन तीनों राज्यों ने 2024 के आम चुनावों के पूर्व-संकेत उछाल दिए हैं।

रायपुर में हुए कांग्रेस के 85वें अधिवेशन से बहुत आशाएं थीं। लेकिन यह अधिवेशन न तो कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे को मजबूत बना सका और न ही विपक्ष के किसी सशक्त गठबंधन की शुरुआत कर सका। इंदिरा गांधी के जमाने से कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र का जो लोप हुआ है, वह आज तक कायम है।

रायपुर में कांग्रेस के तीन वरिष्ठ नेताओं ने मांग की कि कार्यसमिति के लिए चुनाव करवाए जाएं लेकिन संचालन समिति ने तय किया कि यह पवित्र कार्य केवल कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ही करेंगे। खड़गे ने भी पल्ला झाड़ते हुए कह दिया कि वे यह काम आदरणीय सोनियाजी, राहुलजी और प्रियंकाजी से पूछकर करेंगे।

ये तीनों उस बैठक में हाजिर नहीं रहे ताकि किसी पर उनका कोई दबाव न दिखे। यानी कांग्रेस जहां खड़ी थी, वहीं खड़ी रही। यदि वह इसके बजाय विपक्ष का कोई मोर्चा खड़ा करने की व्यावहारिक रणनीति बना पाती तो काफी आगे बढ़ सकती थी।

उसने यह फैसला तो अच्छा किया कि अगले चुनाव में वह 50 प्रतिशत सीटें अनुसूचितों, औरतों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की रखेगी लेकिन ये वंचित लोग जीतेंगे कैसे? इनके वोट भी क्या विपक्षी दलों में बंटेंगे नहीं? कुल वोटों के सिर्फ 30 प्रतिशत वोट जीतकर भी सरकार बन जाती है और 70 प्रतिशत वोटों वाला विपक्ष टापता रह जाता है। आखिर क्यों? क्योंकि उसमें एकता नहीं है।

विपक्ष की एकता के लिए कोई एक नेता और एक नीति होनी चाहिए। जहां तक नीति का सवाल है, देश के लगभग सभी दलों में अब विचारधारा, सिद्धांत या नीति की कोई बाध्यता नहीं रही है। वे दिन गए, जब जनसंघी, समाजवादी, प्रजा समाजवादी, साम्यवादी और प्रांतीय पार्टियों ने 1967 में डॉ. लोहिया के आह्वान पर ‘कांग्रेस हटाओ’ मोर्चा बनाया था।

सभी विपक्षी दलों का एकजुट होना कठिन नहीं है लेकिन राहुल को इस गठबंधन का नेता मानने पर सर्वसम्मति नहीं है। बुजुर्ग नेताओं की बात जाने दें, राहुल से कम उम्र के नेता भी उनके साथ आने को तैयार नहीं हैं। भाजपा और कांग्रेस से अलग तीसरा मोर्चा बन गया तो विपक्ष का हारना तय है। कांग्रेस के बिना यदि कोई मोर्चा बन गया तो उसका जीतना भी असंभव-सा ही है।

ऐसे निराशापूर्ण माहौल में राहुल गांधी ने लंदन-यात्रा की। प्रचार इस तरकीब से किया गया कि लगे राहुल बड़े बुद्धिजीवी हैं। उन्हें ब्रिटिश संसद और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी द्वारा व्याख्यानों के लिए बुलाया गया है। इन संस्थाओं के सभागृह बाहरी आयोजनों के लिए किराए पर उठा दिए जाते हैं, यह मुझे लंदन में पढ़ते हुए कई दशक पहले से पता है।

खैर, वहां जाकर राहुल यदि मोदी सरकार की तर्कपूर्ण आलोचना भी करते तो कोई बात नहीं थी लेकिन यह कहना कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो रहा है, उसे अमेरिका या यूरोपीय राष्ट्र किसी तरह से बचाएं, हास्यास्पद है। यदि भारत में तानाशाही चल रही है तो भारत के कई राज्यों में विपक्षी सरकारें कैसे काम कर रही हैं?

क्या केंद्र में भाजपा की सरकार किसी फौजी तख्ता-पलट के दम पर बनी है? राहुल का यह कहना भी सही नहीं है कि संघ सांप्रदायिक और फासीवादी है। संघ-प्रमुख मोहन भागवत खुद मस्जिदों में गए हैं और उन्होंने मौलानाओं और मुस्लिम बुद्धिजीवियों से खुला संवाद किया है। पूर्व संघ-प्रमुख कुप्प सी. सुदर्शन ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच की स्थापना भी की थी। मोहनजी कई बार कह चुके हैं कि भारत के हिंदुओं-मुसलमानों का डीएनए एक ही है।

राहुल का इंग्लैंड में जाकर यह कहना कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो रहा है, उसे पश्चिमी देश किसी तरह से बचाएं, हास्यास्पद था। क्या केंद्र में भाजपा सरकार किसी फौजी तख्ता-पलट के दम पर बनी है?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)