बिहार में नीतीश कुमार ने जो करिश्मा कर दिखाया है, उससे भाजपा को थोड़ा-बहुत झटका जरूर लगा है, लेकिन विपक्ष तो फूला नहीं समा रहा। लगभग सारे विपक्षी नेताओं ने नीतीश को बधाई दी है और नीतीश ने भी आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए कह दिया है कि नरेंद्र मोदी को अब 2024 की चिंता करनी चाहिए। यानी अब विपक्षी गठबंधन इतना मजबूत हो जाएगा कि वह अगले आम चुनाव में भाजपा को टक्कर दे सकता है।
नीतीश ने यह भी कह दिया है कि अब वे नौवीं बार मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे। तो क्या वे प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे हैं? प्रश्न यह है कि क्या नीतीश विपक्षी गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन सकते हैं? क्यों नहीं बन सकते? भारत में वे ऐसे अकेले नेता हैं, जो आठ बार मुख्यमंत्री बने हैं। उन्होंने ऐसी-ऐसी पार्टियों के साथ गठबंधन किए हैं, जो उनकी जानी दुश्मन रही हैं।
वे ऐसे गठबंधनों के मुख्यमंत्री रहे, जिनकी पार्टियां एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाती थीं। ऐसे ही नेता की आज अखिल भारतीय स्तर पर जरूरत है, जो परस्पर विरोधी पार्टियों को भाजपा के विरुद्ध एकजुट कर सके। असलियत तो यह है कि नीतीश आज की राजनीति के प्रामाणिक प्रतिनिधि हैं। आज की राजनीति क्या किसी सिद्धांत, विचारधारा या नीति पर चलती है? बिलकुल नहीं। उसका मूलाधार है- सत्ता।
सत्ता-प्राप्ति के लिए कोई भी नेता और कोई भी दल किसी का भी हमजोली बन सकता है। लेकिन यहां असली सवाल यही है कि क्या देश के अखिल भारतीय और प्रांतीय विरोधी दल एक मजबूत गठबंधन बनाकर भाजपा को टक्कर दे सकेंगे? ऐसा होना बहुत कठिन लगता है। इसका पहला कारण तो यही है कि इस समय मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ही है।
जिन-जिन राज्यों में यह सत्ता से बाहर है, वहां के प्राय: सभी सत्तारूढ़ दलों से उसकी सीधी टक्कर है, जैसे केरल में कम्युनिस्ट पार्टी, बंगाल में टीएमसी, दिल्ली-पंजाब में आप। अब ये पार्टियां गठबंधन में शामिल होंगी तो कांग्रेस के साथ एक जाजम पर कैसे बैठेंगी? फिर अनेक प्रांतीय दलों में आपसी टकराहट भी बहुत है। नीतीश मोदी के सामने तभी खड़े हो सकते हैं, जब विपक्षी नेता उनके लिए रास्ता छोड़ें।
क्या ममता बनर्जी, शरद पवार, केसीआर, अरविंद केजरीवाल, एचडी कुमारस्वामी आदि नीतीश को अपना नेता मान लेंगे? बिहार में तरह-तरह के नेताओं से सामंजस्य बिठाने में नीतीश को महारत हासिल है, लेकिन बिहार के बाहर उनकी कितनी पकड़ है? वे केंद्रीय रेलमंत्री जरूर रहे हैं, लेकिन अपनी अखिल भारतीय छवि नहीं बना सके हैं। भारत में किसी भी सत्ता को टक्कर देने के लिए नीति से ज्यादा नेता की दरकार होती है।
मोदी ने 2014 में सोनिया-मनमोहन को नेता के रूप में ही टक्कर दी थी। साथ ही उन्होंने नई-नई नीतियों की भी घोषणा की। आज भारत के विपक्ष के पास न तो कोई ठोस वैकल्पिक नीति है, न नारा है और न ही नेता हैं। विपक्ष कितना नाकारा है, इसका प्रमाण इसी से मिल जाता है कि किसान आंदोलन या नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन का कोई विपक्षी दल नेतृत्व तक नहीं कर पाया। विपक्षी नेतागण बयान ही जारी करते रहे।
क्या नीतीश बिहार से बाहर निकलकर कोई देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर सकते हैं? अभी तो बिहार में गठबंधन सरकार चलाना ही भारी चुनौती लगती है। बिहार की गणना आज भी देश के सबसे पिछड़े प्रांतों में होती है। लालू-नीतीश पिछले लगभग पांच दशक से बिहार में सक्रिय हैं। उनकी मिली-जुली सरकार भारत के आम मतदाताओं पर क्या प्रभाव डाल सकती है? अगर आने वाले दो वर्षों में भाजपा सरकार से ही कोई भयंकर भूल हो जाए तो और बात है, वरना लगता नहीं कि भाजपा को 2024 में कोई हिला सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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