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डॉ. चन्द्रकांत लहारिया का कॉलम:दो दशक पहले बिजली, सड़क और पानी चुनावी मुद्दे बने थे, अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य चुनावी मुद्दा बने

2 वर्ष पहले
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डॉ. चन्द्रकांत लहारिया, जन नीति और स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ - Dainik Bhaskar
डॉ. चन्द्रकांत लहारिया, जन नीति और स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ

देश में कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर में सभी राज्यों में स्वास्थ्य सुविधाएं लड़खड़ा रही हैं और महामारी से लड़ने के लिए जरूरी हर चीज की कमी नजर आ रही है। सवाल उठता है कि एक साल पहले, स्वास्थ्य सुविधाएं मजबूत करने के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लगाया गया था, फिर आज हम इन हालातों में क्यों हैं? जवाब है कि वर्षों से देश में स्वास्थ्य सेवाओं को हर तरह से नजरअंदाज किया जाता रहा है।

ऐसे में, स्वास्थ्य तंत्र की चुनौतियों से रातों-रात नहीं निपट सकते, इसके लिए वर्षों निरंतर सरकारी निवेश की जरूरत होती है। भले ही महामारी की पहली लहर के दौरान टेस्टिंग सुविधा, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, पीपीई और मास्क का उत्पादन बढ़ाया गया। मौजूदा बेड्स को कोविड-19 बेड में बदला गया। ये सब जरूरी थे, मगर इससे स्वास्थ्यतंत्र मजबूत नहीं होता। भारत में पहली लहर में मेट्रो, राजधानियां और बड़े शहर प्रभावित रहे। वहां अपेक्षाकृत स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा बेहतर था। थोड़े-बहुत हिचकोलों के बीच किसी तरह मामला संभल गया।

जब पहली लहर कम हुई और कोविड का टीका उपलब्ध हुआ तो देश में लगभग हर कोई, चाहे नीति निर्माता हों या आमजन, यह मानने की गलती कर बैठे कि कोविड चला गया। महामारी अभी भी फैल रही थी और कई देश दो-तीन लहरों का सामना कर चुके थे। यह सोचने का कोई कारण नहीं था कि देश में दूसरी लहर नहीं आएगी।

ऊपर से, स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने की बात लगभग भुला दी गई। एक तरफ, लोगों ने भी कोविड सेे बचाव अनुकूल व्यवहार करना कम कर दिया। दूसरी तरफ, भीड़ जुटाकर रैलियां, त्योहारों के उत्सव और कुंभ मेला हुआ। ये सभी वायरस के फैलने के लिए अनुकूल परिस्थितियां थीं, लिहाजा, देश में पहली से कहीं ज्यादा बड़ी और घातक दूसरी लहर आ गई।

रोजाना आ रहे मामलों को संभालने में स्वास्थ्य तंत्र और सुविधाएं लड़खड़ा रही हैं। अगर सिर्फ पिछले 12 महीनों में किए गए वादों पर ही अमल किया जाता तो संभवत: ये हालात नहीं होते। अब दूसरी लहर से लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। सरकारें परिस्थिति को संभालने की कोशिश में लगी हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि देश और नागरिक मिलकर इस चुनौती को भी पार कर लेंगे। लेकिन यह काफी नहीं होगा। महामारी से लड़ाई लंबी चलेगी। कुछ और लहरें आना संभव है। हमें सबक सीखने और उन पर कदम उठाने की जरूरत है।

पहला, केंद्र और राज्य स्तर पर सरकारों को महामारी से लड़ने और स्वास्थ्य तंत्र मजबूत करने के लिए छोटी अवधि (तीन महीने) और मध्यावधि (एक साल) की कार्य योजना बनाने की जरूरत है। कोविड टीकाकरण की भी विस्तृत योजना की जरूरत है। ये योजनाएं तभी सफल होंगी जब राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री और राज्य स्तर मुख्यमंत्री जिम्मेदारी संभालेंगे। स्वास्थ्य के लिए वित्तीय आवंटन बढ़ाया जाए और योजनाओं के अमल की लगातार निगरानी हो। एक बार महामारी खत्म हो जाए, तब स्वास्थ्य तंत्र मजबूत करने के लिए दीर्घकालिक उपाय को लागू किए जाने चाहिए।

दूसरा, हाल के वर्षों में देश के कई राज्यों ने स्वास्थ्य के अधिकार को लागू करने के लिए विचार-विमर्श शुरू किया है। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि अधिकार के तौर पर होने से स्वास्थ्य सुविधाएं लोगों के लिए सुलभ होती हैं। इस चर्चा को फिर से शुरू करने और अमलीजामा पहनाने की जरूरत है।

तीसरा, जैसे आज से दो दशक पहले, बिजली, सड़क व पानी चुनावी मुद्दे बने थे, अब समय आ गया है की भारत के हर राज्य में, हर चुनाव में, हर बार, स्वास्थ्य एक चुनावी मुद्दा बने। मतदान से पहले, हर उम्मीदवार से पूछा जाए कि उसने अपने चुनाव क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर करने के लिए क्या किया और स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर करने के लिए अगले पांच साल में क्या करेंगे? जब लोग किसको मत देंगे इसका निर्णय, प्रत्याशियों द्वारा स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर बनाने के लिए उठाए गए कदमों और प्रस्तावों के आधार पर होगा, तभी हम एक मजबूत स्वास्थ्य तंत्र, स्वस्थ समाज बनने और भविष्य की महामारियों से लड़ने की उम्मीद कर सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)