आर्थिक सवालों पर भारत और अमेरिका में बहस के मुद्दों में जमीन-आसमान का फर्क दिख रहा है। हमारे यहां इस समय चर्चा चल रही है कि 2021-22 की दूसरी तिमाही में ‘ग्रोथ’ या वृद्धि दर (कुल घरेलू उत्पाद या जीडीपी) के आंकड़ों पर हम खुशी मनाएं या नहीं। सरकारी पक्ष कह रहा है कि 8.4% की वृद्धि दर ने हमें महामारी के पहले वाले स्तर में पहुंचा दिया है, और मोटे तौर पर हम 7% वृद्धि दर के अपेक्षाकृत बेहतर दायरे में पहुंच गए हैं।
वहीं विपक्ष का कहना है कि अगर पिछली तिमाही से तुलना करें तो वृद्धि दर न के बराबर बढ़ी है। यह देखकर ताज्जुब होता है कि अमेरिका में बहस का मुहावरा वृद्धि दर के आंकड़ों पर केंद्रित ही नहीं है। वहां सत्ता पक्ष ने आर्थिक एजेंडा महंगाई, बेरोजगारी और आपूर्ति से संबंधित मानकों पर केंद्रित कर रखा है।
नवंबर में बाल्टीमोर में बोलते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सरकार के लक्ष्य स्पष्ट करते हुए कहा कि उन्हें तीन तरह की गारंटियां करनी हैं। चीजों के दाम कम करने हैं, दुकानों में जरूरत की चीजों की प्रचुर सप्लाई सुनिश्चित करनी है, ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी नागरिकों को रोजगार ‘वापस दिलाने’ के प्रयास करने हैं।
ऐसी बात नहीं है कि भारत में महंगाई, सप्लाई और रोजगार के सवालों को लेकर चिंता नहीं की जा रही है। लेकिन, यहां माना यह जाता है कि अगर वृद्धि दर बढ़ गई तो इन समस्याओं का निराकरण होने की प्रक्रिया की शुरुआत अपने-आप हो जाएगी। इसलिए कोशिश यह की जानी चाहिए कि किसी न किसी प्रकार अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाया जाए।
भारतीय टिप्पणीकार रिज़र्व बैंक से उम्मीद कर रहे हैं कि वह लचीली मौद्रिक नीतियां अपना कर आर्थिक गतिविधियों के प्रसार में योगदान करता रहे। दूसरी तिमाही में हुई 8.4% ग्रोथ संदेश दे रही है कि इससे अर्थव्यवस्था का आकार 4% तक बढ़ सकता है। अमेरिका ऐसे क्यों नहीं सोच रहा है? क्या अमेरिका को अपनी जीडीपी की चिंता नहीं? इन प्रश्नों का उत्तर उस नए आर्थिक चिंतन से मिल सकता है जिसके आधार पर बाइडेन ने अपने दिशा-निर्देश तय किए हैं।
यह चिंतन कहता है कि कुल घरेलू उत्पाद और वृद्धि दर बढ़ने से आर्थिक विकास के लाभ व्यापक जनता को अपने-आप मिलने शुरू नहीं होते। होता यही है कि बढ़ा हुआ जीडीपी स्वाभाविक रूप से आबादी के उन हिस्सों को लाभ पहुंचाता है जो पहले से खुशहाल होते हैं, न कि उनको जो आर्थिक पिरामिड के निचले पायदान पर गुजर-बसर कर रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि जीडीपी की ‘ग्रोथ’ को एक खास दिशा में निर्देशित किया जाए।
महंगाई-बेरोजगारी पर नजर डालते ही साफ हो जाता है कि भारत को इस तरह के आर्थिक चिंतन की कितनी जरूरत है। खुद सरकार के अनुसार शहरों में नियमित नौकरी करने वालों का अनुपात जनवरी से मार्च की तिमाही में 2020 के मुकाबले 2021 में घटकर 50.5 से 48.1% रह गया है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि अनियमित किस्म के रोजगार करने वालों का प्रतिशत बढ़ रहा है। यानी, रोजगार की संरचना नियमित की जगह अनियमित की तरफ झुकती जा रही है।
आठ महीने पहले के इन आंकड़ों से पता चलता है कि रोजगार का क्षेत्र महामारी के विपरीत प्रभाव से उबरने में नाकाम तो रहा ही है, साथ ही उसमें ऐसी नई विकृतियां पैदा हो गई हैं जिनका निराकरण तब तक नहीं हो सकता जब तक उस पर विशेष ध्यान न दिया जाए। ध्यान रहे कि बाइडेन केवल रोजगार दिलाने की बात ही नहीं करते, वे रोजगार ‘वापस दिलाने’ पर जोर दे रहे हैं। हमारे आर्थिक रणनीतिकारों के चिंतन से यह बारीकी गायब है।
महंगाई के मामले में तो रणनीतिकारों का रवैया अजीब है। आंकड़ों की तिकड़म से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक लंबे अरसे से 4.5% है। महंगाई बढ़ती रहती है, लेकिन यह सूचकांक स्थिर रहता है। उधर थोक मूल्य सूचकांक 12% से भी ज्यादा है। यह विरोधाभास क्यों? क्या उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का संबंध थोक मूल्य सूचकांक से नहीं होना चाहिए? इसका उत्तर कोई नहीं देता।
पिछले पूरे साल सरकार ने पेट्रोल-डीजल से खूब कमाई की। सरकारी प्रवक्ता कहते रहे कि यह हमारी ‘इन्फॉर्म्ड चॉयस’ है। दलील यह है कि सोचे-समझे तरीके से तेल से पैसे कमाकर लोकोपकारी योजनाओं पर खर्च किया जा रहा है। लेकिन जैसे ही चुनाव का मौसम आया, सरकार को यह ‘इन्फॉर्म्ड चॉयस’ बदलनी पड़ी।
जाहिर है बेरोजगारी की ही तरह सरकार महंगाई के प्रश्न को वैसी प्राथमिकता देने तैयार नहीं है जैसी अमेरिका में दी जा रही है। खुद को गर्व से पूंजीवादी कहने वाला अमेरिका भी एक हद तक आम आदमी की ओर रुख किए है। भारत एक संपूर्ण पूंजीवादी निज़ाम बनने की तरफ बढ़ रहा है। इसके संचालकों को भी आम आदमी पर केंद्रित अपनी शैली तलाशनी होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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