ब्रिटिश शासन के दौर में अंग्रेजों का फिल्म सेंसरशिप दफ्तर बड़ी सख्ती बरतता था। उस समय बनी फिल्म ‘महात्मा विदुर’ में कथा तो महाभारत से ली गई थी परंतु फिल्म में पात्र विदुर के वस्त्र महात्मा गांधी के समान थे। यहां तक की पात्र ने चश्मा भी पहन रखा था और उसके हाथ में लाठी भी थमाई गई थी। फिल्मकार शांताराम जी ने इतिहास की घटना के माध्यम से उदय काल में देश प्रेम अलख जगाया।
शांताराम ने अपने साथियों की मदद से प्रभात स्टूडियो की स्थापना पुणे में की। यह वही जगह है, जहां पंडित नेहरू ने पुणे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान की स्थापना की थी। यहां से ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आजमी, सईद मिर्जा जैसे लोगों ने सामाजिक सोद्देश्यता का मनोरंजन रचा। गौरतलब है कि अजीज मिर्जा ने शाहरुख खान को न केवल ‘राजू बन गया जेंटलमैन’ फिल्म में प्रस्तुत किया बल्कि शाहरुख खान के मुंबई में संघर्ष के समय अजीज ने उन्हें अपने घर में भी रखा।
अजीज की पत्नी ने शाहरुख को पुत्रवत स्नेह भी दिया। आज के दौर में पुन: माइथोलॉजी या रोमांटिसाइज इतिहास से प्रेरणा लेकर माइथोलॉजिकल फिल्में बनाई जा रही हैं। आभास होता है मानो हम ढाई कोस आगे जाकर 5 कोस पीछे लौट रहे हैं। मनोरंजन क्षेत्र में पाषाण युग की वापसी का आभास हो रहा है। क्या यह दास्तां जहां शुरू हुई थी, वहीं खत्म होने जा रही है? अशोक कुमार अभिनीत ‘किस्मत’ में ‘दूर हटो ए दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है’ गीत के अंतरों में सेंसर से बचने के लिए जापान और जर्मनी से दुश्मनी का विवरण दिया गया था।
कवि प्रदीप जी ने यह गीत लिखा था। सरकार से कई बार निवेदन किया गया कि मध्यप्रदेश में जन्मे प्रदीप के गृह नगर का नाम प्रदीप नगर किया जाए। नाम बदलने के इस दौर में भूले-बिसरों की खोज तो हो रही है परंतु प्रदीप जी अनदेखे ही रहे हैं। एस.एस राजामौली ने अपनी फिल्मों से इतना अधिक धन कमाया कि अब सभी उनका अनुकरण कर रहे हैं। यह आशंका भी जताई जा रही है कि अयान मुखर्जी और रणबीर कपूर की फिल्म ‘ब्रह्मास्त्र’ पर इसका प्रभाव है। वर्तमान में जीवन में गहरे विरोधाभास और विसंगतियां हैं।
सामाजिक सोद्देश्यता की फिल्में पुनः बनाई जा सकती हैं। अब राजकुमार हिरानी की ‘थ्री ईडियट्स’ और ‘पीके’ की तरह फिल्में बनना मुमकिन नहीं लगता। शाहरुख खान की निर्माणाधीन ‘पठान’ को पूरा होने के बाद राजकुमार हिरानी, शाहरुख अभिनीत फिल्म बनाने जा रहे हैं। फिल्म क्षेत्र में भी अन्य क्षेत्रों की तरह दुविधाओं का दौर चल रहा है। आज कबीर बायोपिक नहीं बनाया जा सकता क्योंकि वे अंधविश्वास और कुरीतियों की मुखालफत करते थे।
सच तो यह है कि अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘मानस के हंस’ पर भी फिल्म नहीं बन सकती क्योंकि वह किताब उन्हें संत नहीं बल्कि मानव रूप में प्रस्तुत करती है। गौरतलब है कि हिटलर के दौर में भी एक क्रिश्चियन व्यक्ति ने कुछ यहूदियों को अपने घर के तलघर में सुरक्षित रखा था। इस विषय से प्रेरित स्टीवन स्पीलबर्ग ने एक फिल्म भी बनाई है। इसी क्षेत्र में युद्ध के पश्चात हिटलर का साथ देने वालों पर भी मुकदमा चलाया गया था।
सबकी सफाई यही थी कि हिटलर का आदेश नहीं मानते तो वे भी मारे जाते। एक प्रसिद्ध घटना है कि हिटलर के आदेश पर यहूदियों के साथ बहुत अत्याचार किए गए। इसमें शामिल एक व्यक्ति अपनी पहचान बदलकर लंदन में एक सफल डॉक्टर बन गया। एक खोजी पत्रकार ने उस पर मुकदमा कायम किया।
जज को भी यकीन हो गया था कि यह वही डॉक्टर है परंतु कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल रहा था। विद्वान जज ने उस डॉक्टर को मानहानि के केस में मात्र एक पेन्स मुआवजा दिया। आशय स्पष्ट था कि डॉक्टर दोषी है और उसका मान, मूल्य मात्र एक पेन्स अर्थात सबसे कम धन है।
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