हमारी नजरों के सामने टाटा नाम का ट्रस्ट फंड और बाटा नाम का स्कॉलरशिप ग्रुप है। लड़कियां हर्मीस के बैग्स लेकर चलती हैं और गुच्ची की ड्रेसेस पहनती हैं। लड़के वेम्बले में परफॉर्म करने वाले रॉकस्टार बनना चाहते हैं या उनके अरमान किसी ऐसे स्टार्टअप का फाउंडर बनने के हैं, जो 500 मर्जर-रिक्वेस्ट्स को अपनी तरफ आकृष्ट करता हो।
करन जौहर की दुनिया में आपका स्वागत है। यह साल 2012 है और ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ फिल्म रिलीज हुई है। इसे आप करन जौहर की ही 1998 में आई फिल्म ‘कुछ कुछ होता है’ में दिखाए कॉलेज स्टूडेंट्स का अपडेट वर्शन कह सकते हैं, अलबत्ता उसमें दिखाया गया कॉलेज भी इतना ही स्टीरियोटाइप्ड था। अरे हां, साल 2019 में भी तो ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर 2’ नामक फिल्म आई थी, जिसमें हमारी देशी कबड्डी को भी किसी हवा-हवाई खेल की तरह दिखाया गया था।
एक अरसे से भारत के कॉलेज स्टूडेंट्स को कुछ इसी तरह से चित्रित किया जा रहा है, जो बेवेर्ली हिल्स और आर्चीज़ कॉमिक्स से प्रेरित दिखलाई पड़ते हैं। जोया अख्तर ने ‘द आर्चीज’ की रीमेक बनाई है, जो अगले साल नेटफ्लिक्स पर रिलीज होगी। वह इस परिपाटी को और मजबूत ही करने वाली है। फिल्म में अगस्त्य नंदा, सुहाना खान और खुशी कपूर मुख्य भूमिकाओं में हैं। ये सभी स्टारकिड्स हैं, जिन्होंने विदेश में पढ़ाई की है।
उम्मीद कम ही है कि इन अभिनेताओं को देशी रूप में दिखाया जाएगा, बशर्ते रानी मुखर्जी शैली में उनसे भजन न करवा लिया जाए। हाल ही में चंडीगढ़ म्यूजिक एंड फिल्म फेस्टिवल के दौरान फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री से मेरी बात हो रही थी। ‘बुद्धा इन अ ट्रैफिक जैम’ निर्देशित करने के बाद अग्निहोत्री ने चार साल देश में यात्राएं की और विभिन्न यूनिवर्सिटी और कॉलेज कैम्पस में स्पीच दी। उन्होंने कहा इन तमाम जगहों पर स्टूडेंट्स इंटेलीजेंट, उत्सुक और सवाल पूछने को आतुर थे।
हिंदी सिनेमा में स्टूडेंट्स को जैसा दिखलाया जाता है, उससे बहुत अलग। इन स्टूडेंट्स को देखकर उन्हें यकीन आ गया कि देश में गम्भीर और विचारोत्तेजक सिनेमा के भी दर्शक मौजूद हैं। लेकिन खुद अग्निहोत्री ने अपने सिनेमा में जिस कॉलेज कैम्पस को दिखाया है, वह सच्चाई से दूर है। ‘कश्मीर फाइल्स’ की यूनिवर्सिटी स्पष्टतया जेएनयू पर आधारित है, जिसमें रैडिकल शिक्षक और ब्रेनवॉश्ड स्टूडेंट्स हैं। उन्हें एंटी-नेशनल के रोल में कुशलतापूर्वक फिट कर दिया गया है।
बॉलीवुड के कॉलेज स्टूडेंट्स हमेशा दो अतियों के बीच झूलते रहे हैं। या तो उन्हें पश्चिमी प्रभाव में पले-बढ़े उबर-कूल छात्रों की तरह दिखाया जाता है या लेफ्ट-लिबरल विचारधारा की रैडिकल कठपुतलियों के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। जब बॉलीवुड के फिल्मकार इन दो तरह के कैरेक्टराइजेशन की अति से बाहर निकले तो उन्होंने ‘थ्री इडियट्स’ और ‘रंग दे बसंती’ जैसी बेहतरीन फिल्में बनाईं।
अमूमन तो हमारी फिल्मों में दिखाया जाने वाला यूनिवर्सिटी कैम्पस और उसकी राजनीतिक गतिविधियां किसी प्रेम-त्रिकोण के उभार में योगदान देने वाले ही होते हैं, फिर चाहे ‘हासिल’ की इलाहाबाद यूनिवर्सिटी हो या ‘रांझणा’ का जेएनयू। तब हमें 1963 की ‘मेरे मेहबूब’ जैसी फिल्म की याद आने लगती है, जिसमें स्टूडेंट्स को एक-दूसरे की शायराना तबीयत से इश्क हो जाता था।
जिसमें नायक अनवर मियां अपनी मोहब्बत हुस्ना बानो को खोज निकालने के लिए एक मुशायरे में नज्म गाकर उसे पुकारता है- ‘याद है मुझको मेरी उम्र की पहली वो घड़ी, तेरी आंखों से कोई जाम पिया था मैंने।’ इसकी तुलना इन पंक्तियों से कीजिए- ‘होता है जो लव से ज्यादा वैसे वाला लव, इश्क वाला लव।’ यह 21वीं सदी की कविता है। और इसका एक ही मकसद मालूम होता है- स्टूडेंट्स को पढ़ाई की झंझट से छुटकारा दिलाकर लव की दुनिया में लेकर जाना!
बॉलीवुड के स्टूडेंट्स दो अतियों के बीच झूलते हैं। या तो उन्हें पश्चिमी प्रभाव में पले-बढ़े छात्रों की तरह दिखाया जाता है या लेफ्ट-लिबरल विचारधारा की कठपुतलियों के रूप में। जब फिल्मकार इससे बाहर निकले तभी उन्होंने अच्छी फिल्में बनाईं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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