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अनुपमा चोपड़ा का कॉलम:हंसाना मुश्किल कला है, इस दौर में यह और जरूरी हो गई है; सेंस ऑफ ह्यूमर का तत्व तो होना ही चाहिए

2 वर्ष पहले
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अनुपमा चोपड़ा, संपादक, FilmCompanion.in
ट्विटर - @anupamachopra - Dainik Bhaskar
अनुपमा चोपड़ा, संपादक, FilmCompanion.in ट्विटर - @anupamachopra

आज जब महामारी के माहौल में हर तरफ निराशा, नाउम्मीदी का माहौल है, मैं कॉमेडी फिल्मों के बारे में बात करना चाहूंगी। ये थोड़ी देर के लिए ही सही, मगर उस माहौल से उबरने में मदद तो करती हैं। हाल ही मैंने तेलुगु फिल्म ‘जाति रतनालू’ देखी। इसका मतलब है, ‘देश के गौरव’। हालांकि कहानी तीन ऐसे युवकों की है, जिन पर कोई गर्व नहीं कर सकता। आंध्र प्रदेश के छोटे से शहर के हैं। उनका बड़े शहर जाने का सपना है। हालांकि जब वे हैदराबाद आते हैं, तो भ्रष्ट तंत्र की चपेट में आ जाते हैं। इस पूरे घमासान में जो कॉमेडी पैदा होती है, वह घटनाक्रम को मजेदार बना देती है।

फिल्म में कोई वास्तविकता नहीं है, मगर उसकी स्क्रिप्ट इतनी प्यारी है कि देखते हुए थकान महसूस नहीं होती। यह वैसी कॉमेडी फिल्म नहीं, जिसे देखने के लिए मेकर्स कहें कि दिमाग घर रखकर आइए। ‘छिछोरे’ में एसिड का रोल करने वाले नवीन पोलिशेट्टी मेन लीड हैं। उन्होंने अच्छा काम किया है। उन्होंने साबित किया कि हंसी और दिमाग का मजबूत कनेक्शन है। इस लिहाज से ‘जाति रतनालू’ कमाल की फिल्म है। इसे देख मन हल्का कर लें।

इसे देखने पर महसूस हुआ कि हम सब के लिए कॉमेडी फिल्में कितनी महत्वपूर्ण हैं। दु:ख भी हुआ कि दुनियाभर में कॉमेडी को कितनी कम तवज्जो दी जाती है। उनके लिए कोई अवॉर्ड कैटेगरी नहीं है। हकीकत में लोगों को हंसाना बहुत महत्वपूर्ण कला है। आज यह कला आम लोगों को अवसाद के भंवर में फंसने से बचा सकती है। हमें ऋषिकेश मुखर्जी से लेकर राजकुमार हिरानी या फिर राज एंड डीके जैसों का शुक्रगुजार होना चाहिए। उन्होंने अपनी फिल्मों में रोजमर्रा की जिंदगी पेश की। उन्होंने इनमें जो ह्यूमर डाला है, वह तारीफ के काबिल है।

रहा सवाल कॉमेडी या ह्यूमर का तो वो थोड़ा-सा इनबिल्ट है। एक सेंस ऑफ ह्यूमर का तत्व तो होना ही चाहिए। साथ ही उस पर काम भी करना होगा। मसलन, इन दिनों हम एक एड में राहुल द्रविड का आक्रामक अवतार देख रहे हैं। उनको अब तक हम गंभीर और शांत मानते रहे थे। पर अब विज्ञापन देखकर हमें हंसी आती है। तो कॉमेडी वाले स्वभाव के लोग तो होते हैं, पर कॉमेडी टाइमिंग एक दिन में नहीं आती।

‘जाने भी दो यारो’ को मैं महानतम कॉमेडी मानती हूं। उसके मेकर कुंदन शाह बहुत गंभीर व्यक्ति थे, पर उनकी कहानियां हंसाती थीं। पर बाकी ऐसे मेकर्स की लंबी चौड़ी फेहरिस्त भी रही, जिन्होंने शुरुआत में तो उम्दा कॉमेडी दीं, मगर बाद में उन्हें लगने लगा कि वे तो पैदाइशी फनी हैं। उनकी फिल्मों को आगे चलकर दर्शकों ने खारिज ही कर दिया। स्टैंड अप कॉमेडी और फिल्मों की कॉमेडी में खासा अंतर है। स्टैंड अप में आप लाइव ऑडिएंस के बीच होते हैं। आप को वहीं तालियां या गालियां मिल जाती हैं। फिल्मों पर प्रतिक्रिया देर से मिलती है। फिल्मों में अभिनेता पर तुरंत हंसाने का दबाव कम होता है।

रोहित शेट्टी की तरह की कॉमेडी पर सवाल उठते रहते हैं, मगर उसे बनाने में जो उनकी मेहनत है, उसे खारिज नहीं कर सकते। वे अपनी फिल्मों में उच्च स्तर का एक्शन डालते हैं। उसी क्रम में वे आप लोगों को हंसा भी रहे हैं। यहां तक कि ‘सूर्यवंशी’ में रणवीर सिंह कॉमेडी भी कर रहे हैं। यह बात अलग है कि मुझे ऋषिकेश दा की तरह की कॉमेडी पसंद है। धरम जी के प्यारे मोहन को देखते हुए मैं कभी बोर नहीं होती। हालांकि आज के राजनीतिक माहौल में राजनीति पर व्यंग्य फिल्म बनाना मुश्किल है।

बहरहाल, चलते-चलते मैं ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ की मेकिंग का मजेदार किस्सा बताना चाहूंगी। फिल्म के आखिर में एक शॉट में संजू और ग्रेसी सिंह की शादी दिखानी थी। तब तक फिल्म का बजट ओवर हो चुका था। तो सब मुंबई में कहीं किसी और की शादी में असल मंडप पर गए। वहां जब शादी हो गई और लोग जाने लगे तो मेकर्स ने फटाफट उसी लोकेशन पर कैमरा लगाकर फिल्म का वह सीन फिल्मा लिया।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)