यह दिलचस्प है कि सालभर बैंक डिपॉजिट्स यानी जमा में धीमी वृद्धि देखी गई है। साल के पहले सात महीनों के दौरान इसमें 5.9 लाख करोड़ रुपए की बढ़त हुई थी, जबकि पिछले साल इसमें 7.24 लाख करोड़ रुपए बढ़े थे। आमतौर पर इस आंकड़े को बहुत नजदीक से नहीं देखा गया है। वास्तव में इस साल दिवाली के सीजन में उपभोक्ता व्यय उत्साहजनक रहा है, जिससे ऐसा लगता है कि लोगों ने ज्यादा खर्च किया और बचाया कम, जिसके कारण यह परिस्थिति पैदा हुई है।
इसके अलावा आरबीआई के विभिन्न कदमों के कारण सिस्टम में काफी लिक्विडिटी (नकदी) भी बनी रही है और क्रेडिट (ऋण आदि) उतना ज्यादा नहीं बढ़ा है, इसलिए तंत्र पर कोई दबाव नहीं है। फिर किस बात की चिंता है? जवाब यह है कि लोग बैंक में पैसे जमा करने की जगह बचत और निवेश के वैकल्पिक तरीके चुन रहे हैं, जिस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है।
अभी भले ही यह मायने न रखता हो, लेकिन एक बार क्रेडिट बढ़ने पर बैंकों के लिए लिक्विडिटी की कमी हो जाएगी, खासतौर पर जब धीरे-धीरे आरबीआई अपने प्रोत्साहन उपायों को हटाना शुरू करेगा। आइए वित्तीय बाजार में हो रहे कुछ बदलावों पर नजर डालते हैं, जो बैंकों में जमा राशि कम होने का कारण हो सकते हैं। पहला, आईपीओ में उछाल को रिटेल निवेशकों की मदद मिली है, जो अपनी बचत यहां लगा रहे हैं।
साल के पहले सात महीनों में आईपीओ इशुएंस पिछले साल की तुलना में 50 हजार करोड़ रुपए ज्यादा था। इसमेंं रिटेल की रुचि का मतलब है कि बड़ी मात्रा में बचत, स्टॉक मार्केट में खर्च हुई। जल्दी रिटर्न पाने के लालच ने परिवारों को इक्विटी मार्केट की ओर आकर्षित किया है। वह भी तब, जब इस साल अक्टूबर अंत तक सकारात्मक रिटर्न देने वाले इशुएंस 50 फीसदी से ज्यादा नहीं रहे।
दूसरा, बैंकों ने भी जमा में वृद्धि को प्रोत्साहित नहीं किया और बचत पर मिलने वाले ब्याज की दरें नहीं बढ़ाई हैं। फिक्स्ड डिपॉजिट पर 5 फीसदी सालाना रिटर्न है, ऐसे में किसी परिवार का इसमें निवेश का कोई मतलब नहीं है क्योंकि महंगाई दर भी 5 फीसदी है यानी कोई वास्तविक रिटर्न नहीं मिलेगा। बैकों के लिए चुनौती यह है कि वे 5 फीसदी पर फंड तो ले रहे हैं, लेकिन सीमित मांग के कारण उसे ऋण में नहीं दे पा रहे।
इसका मतलब है कि जब इसे रिवर्स रेपो की 3.35 फीसदी की विंडो में रखा जाएगा, तब इसका नकारात्मक असर होगा। तीसरा, सेकेंडरी मार्केट में भी गतिविधि बढ़ गई है। साल की पहली छमाही के लिए औसत दैनिक कारोबार की मात्रा एनएसई पर पिछले साल की तुलना में लगभग 10% और बीएसई पर 34% अधिक थी। स्पष्ट है कि लोग बढ़ते हुए सेकेंडरी मार्केट में रुचि दिखा रहे हैं।
महामारी के बाद से लगभग दोगुना होते हुए सेंसेक्स के 60,000 पर होने से उम्मीद है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी, शेयर बाजार में आनुपातिक लाभ और ज्यादा हो जाएगा। चौथा, म्युचुअल फंड्स में भी रुचि बढ़ी है। साल की पहली छमाही में म्युचुअल फंड की प्रबंधनाधीन संपत्ति में लगभग 5 लाख करोड़ रुपए बढ़े। इसमें डेट और इक्विटी दोनों शामिल हैं। सेंसेक्स और निफ्टी के लगातार बढ़ने के पीछे यह भी एक कारण है।
इसमें उन बचतकर्ताओं की श्रेणी भी शामिल है जो रूढ़िवादी है और सीधे इक्विटी बाजार में नहीं जाना चाहते लेकिन इन फंड्स के जरिए निवेश करते हैं। अंत में, क्रिप्टोकरंसी में भी लोगों की काफी रुचि बढ़ी है, जिसमें लोग खासतौर पर बिटकॉइन में तेजी से निवेश कर रहे हैं। इन निवेशों से जुड़े आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन हर जगह नजर आने वाले विज्ञापन बता रहे हैं कि लोगों की ऐसे निवेशों में बहुत ज्यादा रुचि है और वे इसे नए तरह के निवेश के रूप में महत्व दे रहे हैं।
ऐसे दर्जनों कॉइन हैं, जिनमें कारोबार हो रहा है और निवेशेक पैसा लगा रहे हैं। यह अभी भी संदेहास्पद क्षेत्र है, जहां अनिश्चित है कि रिटर्न कितना हो सकता है या कुल कितनी राशि का निवेश किया गया है। लेकिन निश्चित रूप से, यह कुछ ऐसा होगा जिस पर लोग गंभीरता से विचार कर रहे हैं और पूरे देश में इसके प्रति रुझान बढ़ेगा तथा यह जल्द ही ग्रामीण भारत तक भी पहुंच जाएगा। आज बैंक जमाराशियों में वृद्धि नहीं होने से काफी खुश हैं।
फिलहाल सवाल यह है कि तब क्या होगा, जब ऋण की मांग बढ़ेगी और बैंकों को जमाराशियों के एक मजबूत आधार की जरूरत पड़ेगी? यह देखा गया है कि आम तौर पर शेयर बाजार में उछाल, सुधार से पहले 4-5 साल की अवधि तक बना रहता है, हालांकि यह और भी अधिक समय तक चल सकता है। जब तक यह पार्टी चल रही है, निवेशक इक्विटी में अधिक मात्रा में निवेश पर जोर देते रहेंगे, क्योंकि उच्च रिटर्न की संभावनाएं बनी रहेंगी।
ऐसे में यह स्वाभाविक है कि बैंकों को निवेश के ऐसे विकल्पों से मुकाबला करना पड़ सकता है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि बैंक जमा पर कोई कर लाभ नहीं होता है क्योंकि ब्याज कर योग्य होता है। डेट इंस्ट्रूमेंट्स या डेट म्यूचुअल फंड में प्रत्यक्ष निवेश के मामले में 3 साल से ऊपर रखने पर पूंजीगत लाभ होता है। इक्विटी में जोखिम है लेकिन कराधान के नियम कम हैं। इन परिस्थितियों में बैंकों के लिए जमा राशि प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण होगा। तब यह चिंता का विषय बन जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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