स्त्री-पुरुष में जितने भेद होते हैं, उनमें से एक यह भी है कि हर खुशी या गम को स्त्री अलग ढंग से लेती है, पुरुष अलग ढंग से। इसीलिए दोनों के लिए सुख और दुख के मतलब भी बदल जाते हैं। दैहिक रूप से भी, आत्मिक रूप से भी। श्रीकृष्ण की पत्नियों ने एक बार जब द्रोपदी से स्त्री के जीवन और सुख-दुख को लेकर कुछ प्रश्न किए तो द्रोपदी ने कहा था- ‘सुखं सुखेनेह न जातु लभ्यं दु:खेन साध्वी लभते सुखानि’।
सुख सभी चाहते हैं, परंतु दुनिया में सुख के रास्ते से सुख किसी को नहीं मिलता। सुख उठाने के लिए भी कुछ दुख भोगना पड़ते हैं। एक पारिवारिक स्त्री अपने परिवार में कई दुख उठाने के बाद खूब सुख महसूस करती है। स्त्री हो या पुरुष, द्रोपदी की यह बात आज भी सब पर लागू होती है। हमारे परिवारों में जब कोई दुख आए तो उससे भागना नहीं है। सब मिलकर उससे निपटेंगे तो उसी दुख में से सुख निकलकर आएगा।
पारिवारिक जीवन के लिए यह एक बड़ा सूत्र है। जब हम दुख सहकर सुख उठाते हैं तो वह सुख, वह खुशी मौलिक होगी, वरना उधार की खुशियां तो मोबाइल से, टीवी से, मित्रों की महफिल से या कोई और भोग-विलास से प्राप्त कर लेते हैं। परिवारों में खासकर माता-बहनों को अपने सुख, अपनी खुशी के लिए मौलिक प्रयास करना पड़ेंगे। वरना तो युवा अवस्था बीत जाने पर स्त्री को आईना भी पुरुष से ज्यादा डराता है।
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