जो लोग बंगाल में ममता बनर्जी की दस साल पुरानी सरकार के खिलाफ एंटीइनकंबेंसी देख रहे थे, उन्हें चुनाव नतीजों की रोशनी में अब अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। नतीजे बताते हैं कि बंगाल में माहौल विरोधी न होकर सरकार के समर्थन में था। किसी पार्टी को 48% वोट और दो-तिहाई सीटें तभी मिलती हैं जब समाज का हर तबका उसे समर्थन देता है।
दरअसल, हमें यह देखना चाहिए कि 2019 में भाजपा से सवा सौ सीटों पर पिछड़ने के बाद ममता बनर्जी ने अपने खिलाफ सुगबुगाते असंतोष को तृणमूल कांग्रेस के प्रति संतोष में कैसे बदला? इस सवाल के जवाब के लिए लोकसभा चुनाव के बाद ममता की रणनीति के दो सुनियोजित पहलुओं पर ध्यान देना होगा।
इनमें पहला है स्थानीय स्तर पर एंटीइनकंबेंसी की आहट को खत्म करने की कोशिशें और दूसरा सरकार की लोकोपकारी भूमिका को विस्तार देना। पहली रणनीति के तहत ममता ने स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार करने वाले पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर लगाम मुहिम चलाई। इसकी कई मिसालें हैं।
जैसे, दक्षिण चौबीस परगना और डायमंड हारबर में ममता ने स्वयं शौकत मुल्ला और अराम्बुल इस्लाम जैसे अपने नेताओं को मजबूर किया कि वे जनता से जबरिया उगाही गई रकमें वापस करें। इसकी खबर पूरे बंगाल में बिजली की तरह फैल गई। जिनसे रकमें ऐंठी गई, वे शिकायतें करने लगे। भ्रष्ट नेताओं के रकमें वापस करनी पड़ीं। इस परिघटना से ममता की छवि जनता की निगाहों में आसमान पर पहुंच गई।
दूसरी तरफ ममता ने सरकार की लोकोपकारी छवि मज़बूत करने का निश्चय किया। रूपाश्री (विवाहित स्त्रियों के लिए), कन्याश्री (छात्राओं के लिए) और सबूज साथी (किसानों के लिए) जैसी स्कीमें पहले से चल रही थीं। ये योजनाएं बंगाल के स्त्री-समाज और गरीब किसानों को प्रभावित करने वाली थीं। फिर ‘दुआरे सरकार’ योजना के कारण लोगों को लगा कि सरकार उनकी दहलीज तक पहुंच सकती है और ‘दीदी के बोलो’ के ज़रिए वे एक केंद्रीकृत फोन नंबर पर शिकायतें मुख्यमंत्री तक पहुंचाने लगे।
उन्होंने सुनिश्चित किया कि अनसूचित जातियों के लोगों को शेड्यूल्ड कास्ट सर्टिफिकेट बिना खर्चे के सुविधापूर्वक मिल सकें ताकि उसके जरिए मिलने वाली सुिवधाओं में कोई कटौती न हो। स्त्री मतदाताओं को ममता की तरफ झुकाने के पीछे एक और बड़ा कारण था, जिसकी तरफ बहुत कम ध्यान गया है। ममता ने 50 महिलाओं को टिकट दिया। यह ठोस आश्वासन था कि वे स्त्रियों का राजनीतिक सशक्तीकरण चाहती हैं।
ममता बनर्जी द्वारा पिछले दो साल में की गई यह सकारात्मक राजनीति एक सबक है, जिससे राजनीतिक समीक्षकों को सीखना चाहिए कि वे सरकारों की खामियों को रेखांकित करने के चक्कर में उनके द्वारा अपने रवैये में किये गए संशोधन को नज़रअंदाज़ न करें। इसी तरह राजनेताओं को सीखना चाहिए कि सरकार के प्रति नाराज़गी को खुशी में कैसे बदला जाता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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