हाल में चीन ने ईरान व सऊदी अरब के बीच करारनामा करवाया। दोनों देश आपस में संघर्षरत थे, लेकिन अब उनके बीच कूटनीतिक रिश्ते बेहतर होने की उम्मीद है। चीन के शीर्ष डिप्लोमैट वांग यी ने संयुक्त त्रिपक्षीय वक्तव्य पर दस्तखत किए थे। उन्होंने कहा, यह अनुबंध बताता है कि चीन एक विश्वसनीय मध्यस्थ की भूमिका निभाने में सक्षम है।
वक्तव्य में भी कहा गया था यह समझौता चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ‘उदारतापूर्ण पहल’ का परिणाम है। चीनी, ईरानी और सऊदी अधिकारियों के बीच चार दिनों तक चली वार्ता के बाद 10 मार्च को यह घोषणा की गई थी। संयोग से उसी दिन चीन में नेशनल पीपुल्स कांग्रेस का सत्र हुआ, जिसमें शी जिनपिंग को लगातार तीसरी बार राष्ट्रपति चुन लिया गया था। ऐसे में वह करारनामा चीनी कूटनीति के बारे में क्या नए संकेत करता है? यह कि उसमें अब एक नया आत्मविश्वास आ गया है या यह कि अब दुनिया पर पश्चिम का दबदबा घटता जा रहा है?
पिछले साल दिसम्बर में शी जिनपिंग ने सऊदी अरब की यात्रा की थी। वहां उन्होंने मेजबान के साथ तीन शिखर बैठकें कीं। वे गल्फ को-ऑपरेशन काउंसिल और अरब लीग के नेताओं से भी मिले। यात्रा के दौरान चीन और सऊदी अरब ने अनेक एमओयू साइन किए, जिनका मूल्य अरबों डॉलर का था।
सभी पक्षों द्वारा जारी संयुक्त बयानों के साथ ही शी ने आठ विभिन्न सेक्टरों में चीन-अरब सम्बंधों को मजबूत बनाने का प्रस्ताव भी रखा। इनमें विकास और सुरक्षा सम्बंधी क्षेत्र भी शामिल थे। अगर अतिशयोक्ति नहीं करें तो कह सकते हैं कि चीन ने मध्य-पूर्व में अपने प्रभाव का दायरा बहुत बढ़ा लिया है।
चीन को अपनी जरूरत के 70% तेल और 40% प्राकृतिक गैस का आयात करना पड़ता है। इनमें से 20% की पूर्ति अकेले सऊदी अरब से होती है। जिनपिंग की यात्रा से ठीक पहले चीन और कतर ने 60 अरब डॉलर की डील साइन की थी, जिसके चलते चीन को हर साल 40 लाख टन तरल प्राकृतिक गैस मुहैया कराई जाएगी।
यह अनुबंध 27 वर्षों के लिए किया गया है। लेकिन मध्य-पूर्व में चीन की रुचि केवल तेल और गैस के लिए नहीं है। वह 2020 से ही अरब-जगत का सबसे बड़ा व्यावसायिक सहयोगी है। 2021 में चीन-अरब व्यापार 330 अरब डॉलर को पार कर गया।
मार्च 2021 में चीन ने ईरान से 25 साल का अनुबंध किया था और 12 अरब देशों से भी इसी तरह की रणनीतिक साझेदारियां की थीं। चीन ने समय-समय पर इराक, ईरान, लीबिया, सूडान, यमन और इजरायल-फलस्तीन संघर्ष के मामलों में मध्यस्थता की, लेकिन इतनी ऐहतियात से कि उसका खासा प्रभाव नहीं पड़ा।
2013 में जिनपिंग ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की घोषणा की थी। मध्य-पूर्व क्षेत्र उसका अहम आयाम है। वहां अभी तक इस इनिशिएटिव के चलते दो सौ से ज्यादा बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर और एनर्जी प्रोजेक्ट्स पूरे किए जा चुके हैं। आज यह इलाका चीन द्वारा निर्मित बंदरगाहों, सड़कों, पॉवर स्टेशनों, पाइपलाइनों, इमारतों से भरा पड़ा है। यहां तक कि वहां पर कुछ पूरे के पूरे शहर चीनी इंडस्ट्रीयल पार्कों और फ्री ट्रेड ज़ोन्स से भरे हैं।
भारत को इस पर नजर रखनी चाहिए, क्योंकि मध्य-पूर्व से हमारे गहरे हित जुड़े हैं। विशेषकर ईरान से मिलने वाला तेल हमारे लिए पेट्रोलियम का निकटतम स्रोत है। आज भी हम अपने तेल का 50% से ज्यादा वहां से आयात करते हैं। मध्य-पूर्व में मौजूद 80 लाख भारतीय प्रवासी भी कम महत्वपूर्ण नहीं, जो हर साल 30 से 40 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा भेजते हैं
यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने मध्य-पूर्व के देशों से मधुर सम्बंध कायम करने के लिए काफी कोशिशें की हैं और अनेक बार वहां की यात्राएं की हैं। सऊदियों ने भारत में 100 अरब डॉलर के निवेश की इच्छा जताई है।
एई तो पहले ही हमारा बड़ा निवेशक है। इस साल गणतंत्र दिवस पर मिस्र के राष्ट्रपति फतह अल सिसी की मौजूदगी उस क्षेत्र से हमारे गहराते रिश्तों की बानगी थी। पर अमेरिका के दबाव में भारत ईरान से मधुर सम्बंध नहीं बना सका है।
भारत को नजर रखनी चाहिए, क्योंकि मध्य-पूर्व से हमारे गहरे हित जुड़े हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने मध्य-पूर्व के देशों से मधुर सम्बंध कायम करने की कोशिशें की हैं और अनेक बार वहां की यात्राएं की हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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