एन एफएचएस-5, यानी नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के परिणाम अब सभी राज्यों के लिए उपलब्ध हैं। यह सर्वे लोगों के स्वास्थ्य व जीवन की गुणवत्ता के कई अहम पहलुओं का अध्ययन करता है। जब सर्वे के परिणाम आए, तो सबने अपनी मर्जी से इस पर प्रकाश डाला। गिलास आधा भरा है या आधा खाली, यह समझने के लिए एक ही आंकड़े का कई तरह से मूल्यांकन किया जा सकता है। उदाहरण के लिए एनीमिया यानी खून की कमी को देख लीजिए।
एनीमिया की बात करें तो एनएफएचएस सर्वे में छह साल से कम उम्र के बच्चों, 15-49 साल की गर्भवती, अन्य महिलाओं और इस उम्र के पुरुषोंं में खून की कमी की जांच की जाती है। 2015-16 के सर्वे से तुलना करें तो, हर श्रेणी में एनीमिया बढ़ा है। अब दो तिहाई बच्चे और आधी से ज्यादा महिलाएं (गर्भ से हों या नहीं) एनीमिक हैं। क्या दो-तिहाई बच्चों में खून की कमी सामान्य बात है? पड़ोसी देशों से तुलना करें तो भारत में महिलाओं व बच्चों में सबसे अधिक एनीमिया है। पाकिस्तान में 2018 में 54% बच्चे, 41% महिलाओं में खून की कमी दर्ज की गई। दक्षिण एशिया के बाहर केवल सब-सहारा अफ्रीका के कुछ देशों में भारत के स्तर पर एनीमिया है।
ऐसा नहीं है कि एनीमिया के मामले में हम कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि यदि पिछले सर्वे से तुलना करें तो एनएफएचएस-1 से एनएफएचएस 4 तक कई राज्यों में कुछ प्रगति हुई थी। एक कारण यह भी हो सकता है कि स्वास्थ्य की मूल सेवाएं कमजोर हैं। इसी सर्वे में पाया गया कि आधी से कम महिलाओं ने आयरन की गोलियां 100-180 दिनों तक ली, जिससे एक तरह के एनीमिया का इलाज हो सकता था।
इसमें पिछले सर्वे की तुलना में वृद्धि हुई है। आयरन की गोलियां उपलब्ध करवाने में खास खर्च नहीं, लेकिन इन्हें नियमित रूप से खाली पेट खाना जरूरी है। इन्हें लेने से कब्ज या उल्टी हो सकती है, शायद यही वजह हो कि महिलाएं इन्हें नियमित रूप से ना ले रही हों। यह एक उदाहरण है कि सरकार द्वारा मूल स्वास्थ्य सेवाओं में शिक्षा जरूरी है।
स्वास्थ्य सेवाओं पर एनएफएचएस-5 सर्वे में कई महत्वपूर्ण आंकड़े हैं। संस्थागत प्रसव में 10 फीसदी की बढ़त हुई है। आपको जानकार ताज्जुब होगा कि सभी संस्थागत प्रसव में, दो तिहाई सरकारी सुविधा में हुए। लोगों का मानना है कि देश में ज्यादातर लोग निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर हैं, पर वास्तविकता यह है कि जितनी पहुंच सरकारी सेवाओं की है, उतनी किसी की नहीं।
यह केवल भौतिक ही नहीं, आर्थिक पहुंच भी एक कारण है। सर्वे में सरकारी सुविधा में प्रसव पर खर्च लगभग तीन हजार रुपए है, तो निजी क्षेत्र में कई गुना। गरीब के लिए तीन हजार रुपए छोटी रकम नहीं। यह नरेगा में लगभग 15 दिन की मजदूरी के बराबर है।
गर्भावस्था के दौरान और प्रसव से जुड़ी जरूरतों के लिए महिलाओं को तीन किस्त में केंद्र सरकार से मातृत्व लाभ के रूप में पांच हजार रु. दिए जाते हैं। वह भी सिर्फ पहले बच्चे के लिए। सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार 2019-20 में पहले बच्चों के अनुमानित 73% को कुछ राशि प्राप्त हुई, लेकिन केवल 44% को तीनों किस्तें मिलीं।
2020-21 में यह संख्या गिरकर 57% व 36% रह गई। बहुत सारी महिलाएं मातृत्व लाभ के हक से वंचित रह गईं। एनएफएचएस-5 के परिणामों को किसी भी तरह से देखें, ये एक चेतावनी है कि स्वास्थ्य और पोषण के क्षेत्र में सरकार के ऊपर भारी जिम्मेदारी है। ये जिम्मेदारी केवल अस्पताल की बड़ी इमारत खड़ी करने तक सीमित नहीं, स्वास्थ्य-पोषण शिक्षा, मूल सेवाएं और आर्थिक समर्थन भी जरूरी है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
● reetika@hss.iitd.ac.in
Copyright © 2022-23 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.