अगर आपको कोई ऐसा गांव मिले, जिसमें 350 परिवार और लगभग 3000 लोग रहते हों, लेकिन इनमें से 1650 लोग एक ही पेशे में हों तो आप सोचेंगे कि वो खेती-बाड़ी का काम करने वाले होंगे। लेकिन महाराष्ट्र के सातारा जिले के अपशिंगे गांव की कहानी एक दूसरा पहलू बताती है। ब्रिटिश इसे देश का इकलौता सैन्य-ग्राम कहते थे। यह गांव अपने 1650 युवाओं को सेना में भेज चुका है।
पहले विश्व युद्ध के दौरान ही इसके 46 पुरुष लड़ते हुए शहीद हुए थे। तब से अब तक इसके सैकड़ों नौजवानों ने 1962, 1965 और 1971 की लड़ाइयों में जान दी है। गांव में प्रवेश करते ही आपको एक विजय स्तम्भ दिखलाई देता है, जिस पर सभी शहीदों के नाम क्रम से और तिथिवार लिखे हैं। गांव के हर घर से कम से कम एक व्यक्ति या तो अतीत में सेना में रहा था या वर्तमान में सेना में है।
यही कारण था कि मुम्बई स्थित षण्मुखानंद फाइन आर्ट्स एंड संगीत सभा ने यहां एक जिम्नेशियम बनाने का निर्णय लिया, जिसमें सेना में शामिल होने के इच्छुक बच्चों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। इसके अलावा वे यहां मौजूद स्कूल का भी पुनर्निर्माण करवाएंगे, साथ ही फौजियों के लिए कार्यालय की सुविधाओं से युक्त एक कम्युनिटी हॉल भी बनवाएंगे। आगामी 15 अगस्त को यहां 75 वॉर-वेटरन्स का अभिनंदन भी किया जाएगा।
हर बार मानसून में मुम्बई, ठाणे और रायगढ़ में भारी बारिश होती है। इसके बावजूद इसी क्षेत्र में स्थित खामगांववाड़ी सहित अनेक अन्य गांवों के निवासियों को सर्दियों और गर्मियों में पानी की किल्लत का सामना करना पड़ता है। गंदा पानी पीने से ग्रामीणों को बीमारियां हो जाती हैं। ऐसे में स्वदेस फाउंडेशन उनकी मदद के लिए आगे आया, जिसका संचालन जरीना स्क्रूवाला के द्वारा फिल्म-निर्माता रोनी स्क्रूवाला के साथ मिलकर किया जाता है।
यह ग्रामीणों में जल-जागरूकता लाने का काम करता है। वह उन्हें बताता है कि पहाड़ी इलाकों की ढलान के समीप कैसे एक के बाद एक डबरियां बनाई जाएं, ताकि बारिश में नीचे बह जाने वाला पानी मिट्टी में से छनकर उनमें एकत्र हो जाए। इसके बाद उन्होंने एक तालाब का निर्माण कराया। अपनी जल-जागरूकता के चलते ग्रामीणों ने स्थानीय अधिकारियों से आग्रह किया कि वे उनके लिए एक और तालाब खुदवाएं।
आज उनके पास दो बड़े वॉटर-टैंक हैं, जो गांव के 65 घरों को पूरे साल ताजा पानी मुहैया कराते हैं। इस साल मानसून खत्म होने के बाद लगभग 250 स्कूली बच्चे अपने नए स्कूलों में जाएंगे, जिन्हें सेना की निर्माण-तकनीक से प्रेरित होकर बनाया गया है। ये अर्थ-बैग्स कहलाते हैं, जो तूफान और बाढ़ का बेहतर तरीके से सामना कर पाते हैं।
यह क्षेत्र पश्चिम बंगाल में तीन नदियों ब्रह्मपुत्र, पद्मा और मेघना के संगम से निर्मित डेल्टा में सुंदरबन के समीप स्थित है। अर्थ-बैग्स अनेक बाढ़ग्रस्त इलाकों में टिकाऊ साबित होते हैं। इनकी दीवारों पर चूने के गारे का पलस्तर किया जाता है, जिसमें प्राकृतिक सामग्रियां मिलाई जाती हैं। इससे भवन की जल-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और पानी प्रवेश नहीं कर पाता।
इनकी परिकल्पना और क्रियान्वयन जयपुर स्थित संस्था अर्थन क्रिया द्वारा किया गया है। वे प्राकृतिक संसाधनों की मदद से छह कक्षाओं और दो एक्टिविटी-रूम्स वाले स्कूल बना रहे हैं। कोलकाता आधारित एनजीओ एक पैकेट उम्मीद के द्वारा प्रचारित ये स्कूल आपदा के समय शरणगाह की तरह भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं।
फंडा यह है कि देने का मतलब हमेशा ही यही नहीं होता कि हम किसी तात्कालिक जरूरत की पूर्ति करें। हम आने वाले कल की सुरक्षा का भी ख्याल रख सकते हैं। इसीलिए देने का हमेशा एक दूसरा पहलू भी होता है।
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