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एन. रघुरामन का कॉलम:फूड की लोकप्रियता के लिए उसे सुविधापूर्ण और लुभावना बनाएं

5 महीने पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

पुराने समय में, हर स्कूल के बाहर एक बूढ़ी महिला टोकरी लिए बैठी रहती थी और लंच टाइम या छुट्टी होने का इंतजार किया करती थी। मात्र दो पैसों में वह पत्तों से बना एक कोन भरकर सौते या उबले बेर देती थी, जिन पर वह थोड़ा नमक और चूरन छिड़क देती थी। कक्षा में तीन घंटों तक बिना कुछ खाए बैठे रहने के बाद मेरे जैसे स्कूली बच्चे को वे बेर सबसे स्वादिष्ट लगते थे।

हर गांव में स्कूल के बाहर, नुक्कड़ पर या मेलों में इस तरह की खाने-पीने की सामग्री बेचने वाले मौजूद रहते थे। जब गरीब भारत इस तरह के सड़कों पर बिकने वाले बेर खाया करता था, तब विकसित देश एक ऐसे अनाज का सेवन करते थे, जो आगे चलकर दुनिया के लिए सबसे जरूरी स्नैक बन गया।

जिस तरह से बेर की झाड़ी भारत के अधिकतर हिस्सों में पाई जाती है, उसी तरह से यह अनाज मध्य अमेरिका में उगता था और उन्नीसवीं सदी के मध्य में अमेरिका में लोकप्रिय हुआ था। जिस तरह से भारतीय स्कूलों के बाहर वे बूढ़ी औरतें बैठी रहती थीं, उसी तरह से उन्नीसवीं सदी के अंत में अमेरिका की गलियों में पॉपकॉर्न बेचने वाले पाए जाते थे।

इसे बनाना आसान था, इसलिए इसकी लागत भी कम थी, जिससे महामंदी के दौरान इसकी लोकप्रियता बढ़ गई। जब दुनिया में सिनेमा का प्रसार हुआ तो थिएटरों के मालिक पॉपकॉर्न बेचने वालों को थिएटर के बाहर अपनी सामग्री बेचने की अनुमति देने लगे। वे उनसे इसकी फीस लिया करते थे। लेकिन 1940 के दशक के मध्य तक थिएटर संचालक थिएटर की लॉबी में खुद अपने स्टॉल लगाने लगे।

पॉपकॉर्न की बहुतायत वाले इन स्टॉल के चलते मूवी थिएटर उद्योग अच्छे से चलने लगा और तभी से फिल्म देखते समय पॉपकॉर्न खाने की परिपाटी चली आ रही है। धीरे-धीरे यह स्नैक इतना लोकप्रिय हो गया कि 19 जनवरी को अमेरिका में नेशनल पॉपकॉर्न डे मनाया जाने लगा। आज केवल अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया में फिल्म देखने के लिए जाने वाले पॉपकॉर्न से भलीभांति परिचित हो चुके हैं।

यह बहुत सुविधापूर्ण फूड भी है और गलती से गिर जाने पर यह फर्श को गंदा नहीं करता। इसे आसानी से बुहारा जा सकता है, जिस कारण थिएटर संचालकों ने मूवी-हॉल के भीतर इसके सेवन को प्रोत्साहित किया है। जब हम इसके आदी हो गए तो वो इसकी कीमतें बढ़ाने लग गए, जिससे यह आज थिएटर के अंदर बहुत सारे लोगों की क्षमता के बाहर हो गया है।

उन्होंने इसे विभिन्न साइजों में भी प्रस्तुत किया है और इसे कोन के बजाय बकेट में भी पेश करने लगे हैं। इस मंगलवार को मुझे तब पॉपकॉर्न के इस छोटे-से इतिहास की याद हो आई, जब भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा वाली एक खण्डपीठ ने कहा कि थिएटर में उपलब्ध फूड को खाना या नहीं खाना पूरी तरह से फिल्म देखने वाले व्यक्ति का निजी निर्णय है और लोग वहां पर मनोरंजन के लिए जाते हैं।

मीडिया में सीजेआई को उद्धृत करते हुए बताया गया कि कोई भी आपको पॉपकॉर्न खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर रहा है। यह मामला तब सामने आया, जब जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय ने अपने राज्य के मल्टीप्लेक्स/सिनेमाघर संचालकों को निर्देशित किया कि वे फिल्म देखने वालों को थिएटर में अपना फूड और पानी ले जाने से रोकें नहीं। इस निर्देश के विरोध में सर्वोच्च अदालत से रायशुमारी की गई थी।

फंडा यह है कि कोई फूड तभी लोकप्रिय हो सकता है, जब हम एक बार में एक ही फूड को चुनें, उसे खाना और बेचना सुविधापूर्ण हो और जो उसे खरीदने के लिए हमें हर तरह से लुभाने में सफल रहे।