इन दिनों अपनी ट्रिप्स के दौरान मैं नाश्ता सुबह 8 के पहले और डिनर शाम 7 के पहले कर लेता हूं। यही वह समय है, जब उन होटल्स के रेस्तरां खाली होते हैं और मैं नाश्ते के समय अखबार पढ़ पाता हूं और िडनर का लुत्फ उठाते अगले दिन की ‘टु-डू’(कार्य सूची) लिस्ट पर ध्यान लगा पाता हूं।
सुबह 8.30 पर नाश्ते के लिए मेहमान आने लगते हैं तो मैं वहां से निकल जाता हूं, ऐसे ही रात 8 के पहले जब वे डिनर के लिए आते हैं तो मैं चला जाता हूं। मैंने हाल ही में ये आदत डाली है। वो इसलिए क्योंकि ज्यादातर अकेले गेस्ट डायनिंग टेबल पर बैठे मोबाइल में वीडियो देखते रहते हैं। मुझे इसमें आपत्ति नहीं।
पर आवाज इतनी तेज होती है कि ज्यादातर मौकों पर इससे विचारों में खलल पड़ता है। आप फाइव स्टार होटल में इन फॉरवर्डेड मैसेज पर किसी की ‘हेहे हंसी’ सुनने नहीं जाते। मैं चिड़कर रेस्तरां मैनेजर से आग्रह करता हूं कि वह उन्हें जाकर कहें कि वह बाकियों को परेशान कर रहे हैं। जब वे नहीं सुनते तो मैं रूम में आ जाता हूं।
यही दृश्य विमान, ट्रेन या बस में होता है। चूंकि हम बाकी लोगों के सुकून का ध्यान रखने में दिलचस्पी नहीं दिखाते, ऐसे में मैंने इन जगहों पर जल्दी जाकर उनसे बचने का फैसला किया। मैं यात्रा में कानों में एयरपॉड्स लगा लेता हूं, इस तरह बाकी दुनिया से बेखबर अपने विचारों में खो जाता हूं।
धीरे-धीरे मुझे अहसास हुआ कि मेरे बाजू में बैठकर अगर कोई पॉपकॉर्न खाए या सूप/चाय भी पीए तो मुझे चिड़ होती है। पता नहीं क्यों मुझे वैक्यूम क्लीनर जैसे चूसकर चाय पीने की आवाज परेशान करती है, चाय पीते हुए होंठों से हवा बनने से चूसने की आवाज आती है। ऐसी आवाजें सुनकर मैं जल्दी चिड़ जाता हूं, तनाव इतना बढ़ जाता है कि गुस्से का पारा फूट पड़ता है।
याद करें बचपन में जब हम डिनर प्लेट को चम्मच से बजाते थे तो पैरेंट्स उस आवाज से चिड़चिड़ाते थे और खीझकर कहते कि इसे बंद करो या चम्मच छीन लेते? उनकी तरह कुछ आवाजें मेरे भीतर हलचल करती हैं। तभी मेरे परिवार के एक सदस्य ने कहा कि मुझे एक डिसऑर्डर है। मैं ‘मिसोफोनिया’ से जूझ रहा हूं।
इसे पहली बार 2001 में नाम मिला और परिभाषित हुआ, यह तंत्रिका तंत्र संवेदी स्थिति सदियों से उपेक्षित है। चम्मच बजाते हम पैरेंट्स को गलत समझते थे, ऐसे में सार्वजनिक जगहों पर मोबाइल पर जोर से कुछ सुनते लोगों को टोकने पर कई लोग हमें गलत समझते हैं।
न्यूकासल यूनिवर्सिटी का 2017 का शोध बताता है कि आवाजें दिमाग के फ्रंटल लोब में फर्क पैदा कर सकती हैं, जिसका एमिगडला नामक भावनात्मक केंद्र से ज्यादा जुड़ाव होता है, जो किसी चीज पर होने वाली प्रतिक्रिया निर्धारित करता है और हम गुस्सा या हताश हो जाते हैं।
‘फ्रंटियर्स इन न्यूरोसाइंस’ जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार मिसोफोनिया ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर (ओसीडी) की ही तरह एक स्थिति है। तब मुझे लगा कि चूंकि मुझे ओसीडी है, इसलिए मैं आवाज़ों से प्रभावित होता हूं। इस समस्या के लिए डॉक्टर एक उपचार सुझाते हैं कि आप जो ध्वनि सुन रहे हैं, उसके साथ नया संबंध बनाएं।
इसलिए इन दिनों अगर कोई मेरे बाजू में बैठकर पॉपकॉर्न चबाता है तो मैं 1981 की फिल्म सिलसिला का गाना ‘ये कहां आ गए हम...’ सोचने लगता हूं जिसमें एक पैराग्राफ इस पंक्ति से शुरू होता है- ये पत्तियों की है सरसराहट के तुमने चुपके से कुछ कहा है...’ और फिर मेरा गुस्सा मुस्कान में बदल जाता है।
फंडा यह है कि अगर आप आवाजों से एक संबंध स्थापित करें तो शायद उसकी तीक्ष्णता आपको परेशान करने वाले बिंदु से कम हो जाए और आपको दर्द महसूस न हो।
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