मैं भोपाल में हाल ही में संपन्न हुए देश के एक बड़े शादी समारोह में आमंत्रित था, जहां देश के नामी-गिरामी लोग मौजूद थे। देश के हर हिस्से के व्यंजनों की शानदार खुशबू वहां मौजूद लोगों द्वारा लगाई परफ्यूम से प्रतिस्पर्धा कर रही थी।
यहां इन दोनों बेमिसाल चीजों की तुलना करने का तुक यह है ताकि पाठक टीवी पर रोज दिखने वाला नामों की कल्पना कर सकें, साथ ही उन्हें किस स्तर का खाना परोसा जाता है, वो भी कल्पना करें। संक्षेप में कहूं तो दोनों सुपर पावरफुल थे।
उस सुरक्षित बड़े मैदान पर पांच हजार लोगों के बीच से गुजरते हुए एक कॉमन लाइन मैंने सुनी, जो वे बाजू में खड़े दूसरे व्यक्ति से कह रहे थे, ‘अरे, मैंने आज बहुत खा लिया’ या ‘मुझे कल ट्रेडमिल पर 45 मिनट ज्यादा बिताने पड़ेंगे।’ मतलब वहां सिर्फ दो चीजें हुई होंगी। या तो वे मेजबान के बहुत शानदार सत्कार के आगे सब भूल गए होंगे या उस जबरदस्त खाने की खुशबू या वहां की क्वालिटी के आगे झुक गए होंगे।
कई लोगों के लिए ये मानना कठिन होगा कि आंखों को बहुत अच्छे लगने वाले माहौल में हम ज्यादा खा लेते हैं। आप शायद इससे भी सहमत न हों कि कोई खाने की सुगंध के आगे भी हार जाता है। चलिए मैं अपनी बात ऑक्सफोर्ड में डाइट-पॉपुलेशन हेल्थ की प्रोफेसर सुसान जेब द्वारा किए प्रयोग से साबित करता हूं।
ईस्टर से पहले उन्होंने एक सुपरमार्केट से कहा कि वे ईस्टर एग्स और इससे जुड़े उत्पादों को मुख्य जगहों से हटा दें, हालांकि वही उत्पाद स्टोर में दूसरी जगहों पर बिक्री के लिए रखे थे। ग्राहक संख्या, आकार में बराबर व उसी लोकेशन पर मौजूद एक अन्य स्टोर पर ये उत्पाद उसी तरह रखे गए, जैसे ईस्टर जैसे किसी बड़े दिन से पहले बिक्री बढ़ाने के लिए रखा जाता है।
प्रयोग से पहले, चॉकलेट जैसे खाद्य पदार्थों की बिक्री दोनों दुकानों में समान थी। उन्हें समझ आया कि ईस्टर से जुड़े उत्पाद जैसे चॉकलेट जिस स्टोर में प्रमुख जगह रखे थे, वहां लोगों ने पहले की तुलना में ईस्टर तक 31% ज्यादा खरीदी की। वहीं, दूसरे स्टोर पर जहां ये उत्पाद मुख्य जगह नहीं थे, वहां भी लोगों ने ज्यादा चॉकलेट खरीदीं पर सिर्फ 12%। क्या आप मानेंगे कि लोगों ने स्टोर में अलग-अलग जगह रखने के कारण विकल्प चुना है?
शायद हम सहमत न हों। वो इसलिए क्योंकि हमें लगता है कि अपनी पसंद बनाते समय हम बुद्धिमान व तर्कसंगत हैं। पर अलग-अलग जगह बार-बार किए गए ये प्रयोग बताते हैं कि हमारी पसंद अक्सर वहां के माहौल से तय होती है, भले ही हम बतौर ग्राहक उसे न जानते हों। इस प्रयोग से निष्कर्ष निकला कि भले हम भूखे हों या न हों, खाने की खुशबू और वहां का माहौल देखकर हम ज्यादा खा ही लेते हैं।
यही वजह है कि सुसान कहती हैं, ऑफिस में हफ्ते में तीन बार कटने वाले बर्थडे या एनिवर्सरी केक पेसिव स्मोकिंग जैसे हैं। आप ये जाने बगैर केक खाते हैं कि ये न सिर्फ अतिरिक्त कैलोरी जोड़ रहे हैं बल्कि सुबह की कसरत पर भी पानी फेर रहे हैं। बहुत कम लोग हैं जैसे बॉलीवुड स्टार्स या अनिल अंबानी, जिन्हें मैंने खुद देखा है कि वे कैलोरी गिनते हैं, फिर अगले दिन की कसरत का लक्ष्य तय करते हैं।
हम भारतीय, जो कई शादियों में जाते हैं या कार्यक्रमों-कांफ्रेंस में जाते हैं, उनके लिए इस प्रयोग का सबक है कि हम इससे इंकार नहीं कर सकते कि ऐसे माहौल में हम बहुत खा लेते हैं। समय आ गया है और हम समाज के रूप में ज्यादा खाने के इस चलन पर खुलकर बात करें।
फंडा यह है कि अगर आप वाकई वजन घटाना चाहते हैं तो आपको माहौल चुनना होगा क्योंकि हमारी पसंद उस दुनिया से आकार लेती हैं, जहां हम रहते हैं, जो दोस्त चुनते हैं। कोशिश करें, अपने जिम के दोस्तों का वाट्सएप ग्रुप बनाए, फिर फर्क देखें।
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