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एन. रघुरामन का कॉलम:आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो उनकी बस्तियों तक ट्रांसपोर्ट पर करें फोकस

एक वर्ष पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

हमने सुना है कि अच्छे स्कूल या स्कूलों में अच्छे शिक्षक ना हों तो इसका असर शिक्षा पर पड़ता है, खासतौर पर उन क्षेत्रों में जहां सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि के लोग रहते हों। हम यह भी जानते हैं कि अच्छी शिक्षा से उनका उत्थान हो सकता है। लेकिन हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि लोक-परिवहन के खराब साधनों का भी आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों पर इतना ही असर पड़ता है।

आइए मैं आपको इस कड़के सच से परिचित करवाता हूं कि आज की शिक्षा पर ट्रांसपोर्ट मैनेजमेंट का कितना असर पड़ता है। देश का हर शहर इस बात के लिए मुंबई से ईर्ष्या करता है कि वहां तेज गति से और किफायती दामों पर परिवहन के साधन मुहैया हैं। आप मुझे दुनिया का एक भी ऐसा शहर बताएं जो किसी व्यक्ति को लगभग 17 पैसे प्रति किमी की दर पर यात्रा कराता हो, वो भी एक मिनट में?

16 अप्रैल 1853 को मुंबई में शुरू हुई उपनगरीय रेल सेवाएं आज यही कर रही हैं। सैकड़ों दशक पुरानी ये ट्रेनें लोगों को लगभग 250 किमी के दायरे में शहर के हर कोने से काम पर लाती-ले जाती हैं। इसके अलावा एक सदी पुरानी लाल डबल-डेकर बसें भी ना केवल उन बिंदुओं को जोड़ती हैं, जिन्हें उपनगरीय रेलें चूक जाती हैं, बल्कि डेडिकेटेड लेन्स के बिना भी भीड़भरी सड़कों पर तेज गति से चलने के कारण ट्रांसपोर्ट प्लानर्स उन्हें अचरज से देखते हैं।

आज कई शहरों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए डेडिकेटेड लेन्स हैं। पर बीते 5 दशकों में मैंने देश के किसी और शहर में मुंबई से ज्यादा भरोसेमंद लोक-परिवहन प्रणाली नहीं देखी है। लेकिन आज आईआईटी बॉम्बे की एक स्टडी ने इस कभी ना सोने वाले शहर के सामने एक चौंकाने वाला तथ्य रखा है। हाल ही में प्रकाशित ‘सिटीज़, एन एल्सीवियर जर्नल’ में पाया गया है कि ना केवल मुंबई के बाहरी इलाकों, बल्कि दक्षिणी मुंबई जैसे धनाढ्य इलाकों में भी स्कूलों तक पहुंचने के साधनों की दशा शोचनीय है।

स्टडी बताती है कि कैसे लोक-परिवहन के साधनों के अभाव के कारण अनेक बच्चों के लिए स्कूलों तक पहुंच पाना मुश्किल साबित हो रहा है। यह रिसर्च आईआईटी-बॉम्बे के प्रो. गोपाल पाटील ने अपने सिविल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के पीएचडी छात्र गजानंद शर्मा के साथ की है, ये बताती है कि नगरीय नियोजन में बुनियादी शिक्षा की उपलब्धता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना चाहिए क्योंकि इसका बच्चों के मौलिक अधिकारों पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

महंगी जमीन/भाड़े के कारण शहर के बाहरी इलाकों में सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की बड़ी आबादी रहती है, मंुबई भी अपवाद नहीं है। ये शहर काम खोजने वालों को सेंट्रल बिजनेस डिस्ट्रिक्ट तक तो आसानी से ले जाता है, लेकिन बच्चों को स्कूलों तक ले जाने में वह इतना सक्षम नहीं दिखता। इसके अलावा इन इलाकों में प्राथमिक स्कूलों की तुलना में माध्यमिक स्कूलों की संख्या भी अनियमित होती है, जिससे उन तक पहुंच और कठिन हो जाती है।

माध्यमिक शिक्षा में पढ़ाई छोड़ने का ये भी एक बड़ा कारण है। ये दो कारणों से होता है। किसी भी शहर की जनसंख्या व उसका विस्तार बिना प्लानिंग के होता है, क्योंकि कई लोग काम की खोज में बाहर से आते हैं और वहीं बस जाते हैं। दूसरा कारण ये है कि जब लोकल अधिकारी शहर के बाहर झुग्गियां बसाते हैं तो वे स्कूलों तक पहुंच ध्यान में नहीं रखते। परिवहन विभाग को ऐसी शिफ्टिंग का पता तक नहीं होता।

फंडा यह है कि अगर नगर-नियोजक सच में ही आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो उन्हें उनकी बस्तियों से स्कूल या काम की जगहों तक परिवहन के अधिक तेज, भरोसेमंद और सस्ते साधनों पर फोकस करना चाहिए।