• Hindi News
  • Opinion
  • N. Raghuraman's Column 'Locha Hua To Kya Hua Hua' Will Still Sell, Provided You Have The Art Of Storytelling

एन. रघुरामन का कॉलम:‘लोचा’ हुआ तो क्या हुआ, फिर भी बिकेगा, बशर्ते आपके पास कहानी कहने की वह कला मौजूद हो

2 महीने पहले
  • कॉपी लिंक
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु  - Dainik Bhaskar
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु 

सू रत में दैनिक भास्कर के हालिया कार्यक्रम में मैंने स्टेज पर एक नवयुवक को मेरे साथ मॉक इंटरव्यू के लिए बुलाया। उसके बायोडाटा पर नजर मारते हुए मैंने उससे कहा कि तब तक अपने बारे में कुछ बताए। उसने बायोडाटा में पहले से मौजूद नाम, क्वालिफिकेशन आदि सुनाना शुरू कर दिया और वो 30 सेकंड गंवा दिए, जिसमें वह अपने बारे में ऐसा कुछ बता सकता था, जो बायोडाटा में नहीं था।

अगर वह इंटरव्यूूअर को बताता कि वह ऐसे शहर से आता है, जो ‘लोचा’ तक बेचने के लिए जानी जाती हैै और किसी को बिक्री में समस्या दिखती है तब भी वह कुछ भी बेच सकता है, तो वह आसानी से चुना जाता। इससे इंटरव्यूअर को जिज्ञासा पैदा होती और नियोक्ता को यह पूछने को मजबूर करता कि इससे क्या तात्पर्य है। वह बता सकता था कि उत्तर भारत में आमतौर पर लोचा मतलब कुछ गड़बड़ी है। परीक्षा अच्छी नहीं गई या किसी काम में बचकानी गलती कर दी, तो स्टूडेंट्स के बीच यह कहना बहुत कॉमन है कि यार लोचा हो गया।

दिलचस्प है कि सूरत में ‘लोचा’ फेमस डिश है, मैंने देखा कि ‘जानी लोचा सेंटर’ पर इसे लेने के लिए लोग लंबी लाइन में खड़े हैं, मैं जिस होटल में रुका था, वहां से ये जगह करीब थी। लोचा के पीछे की कहानी कुछ एेसी है। एक बार एक शेफ ने गलती से खमण के बैटर में ज्यादा पानी डाल दिया, जिससे यह रेगुलर की तुलना में पतला और मैशी हो गया, ये देखकर वो चिल्लाया ‘अरे आ तो लोचो थाइ गयो’ और गलती छुपाने के लिए उसने स्वादिष्ट-रंगीन टॉपिंग के साथ डिश परोस दी। लोगों को यह पसंद आई और इस तरह डिश ईजाद हो गई।

कई प्रबंधन विशेषज्ञ मानते हैं कि दो अर्थ वाले शब्दों के साथ खतरा है, बावजूद इसके स्टोरी टैलिंग, लीडरशिप का बड़ा गुण है। प्रतिभागी का चमत्कारिक या शानदार होना जरूरी नहीं। अगर वह स्टोरी गढ़ने के साथ सही स्टोरी बता दे तो बाकियों की तुलना में नियोक्ता का बेहतर ध्यान खींच सकता है। और जाहिर है नियोक्ता के पास भी यही प्रतिभा अच्छे कर्मचारी को भी खींचती है।

डाटा ओवरडोज के साथ पीपीटी आजकल बोर्ड रूम में शोर-शराबा लगता है। उपभोक्ता, शहर, समाज और हमारी खुद की कहानियां इसमें पुल का काम करती हैं कि कोई क्या और कैसे उत्पादन करता है, ये सुब सुनकर आखिरी उपयोगकर्ता उस उत्पाद को लेता है। आधुनिक लीडर्स रोचक जमीनी कहानियां सुनना चाहते हैं।

प्रतिभागी खुद में जितना ऑब्जर्वेशन स्किल पैदा करता है और बोर्ड मीटिंग में उसे सुनाने में सक्षम होता है, प्रबंधन की उतनी अटेंशन मिलती है, जो ग्राहक के साथ कहानी और उसके जुड़ाव के स्तर को मैटाफर यानी रूपक की तरह लेने में सक्षम हैं।

जब तक कहानी खत्म होती है, सुनने वाले उसका मूल संदेश समझ जाते हैं, जो कंपनी अंततः देना चाहती है। विशेषज्ञ मानते हैं, ‘स्टोरी टैलिंग आसान नहीं और सही समय पर सही कहानी सुनाना अभ्यास से आता है। आसपास मित्रों को छोटी-छोटी कहानियां सुनाना पहला कदम है।’

मुझे याद आ रहा है कि उन दिनों फिल्म देखने के लिए हमारे पास पैसे नहीं होते थे, हर मित्र से हम 10-10 पैसे इकट्ठा करते थे और ग्रुप में किसी एक को फिल्म देखने के लिए 35 पैसे दे देते थे और फिल्म देखने के बाद वो वापस आकर कहानी सुनाता था, इसमें ड्रेस के कलर, एक्शन बाकी चीजों के साथ-साथ लोकेशन का भी जिक्र होता था। इस अभ्यास से हमारे दौर की पीढ़ी अच्छी स्टोरी टैलर बन गई।

फंडा यह है कि ‘लोचा’ हुआ तो क्या हुआ, फिर भी बिकेगा, बशर्ते आपके पास कहानी कहने की वह कला मौजूद हो, जो कुछ गलत होने पर भी छवि को ठीक कर सके।