दैनिक भास्कर के कार्यक्रम की कड़ी में जालंधर के बाद शनिवार को मेरा पड़ाव पानीपत (हरियाणा) था। जैसे शुक्रवार को मैं 51 शक्तिपीठों में से एक, और पंजाब की इकलौती शक्तिपीठ त्रिपुरमालिनी गया था, वैसे ही शनिवार को पानीपत के प्रसिद्ध देवी मंदिर गया। 250 साल पुराना मंदिर 18वीं सदी में मराठा योद्धा सदाशिवराव भाऊ ने बनवाया था, जब वह अफगानी आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली से युद्ध करने यहां आए थे, इस दौरान सदाशिवराव यहां दो महीने रुके।
माना जाता है कि सदाशिवराव को देवी मूर्ति तालाब किनारे मिली थी, तब उन्होंने मंदिर बनाने का फैसला किया। जब मंदिर बन रहा था तो मूर्ति को रात को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखा गया था परंतु सुबह मूर्ति उसी स्थान मिली, जहां से उसे पाया गया था तब निर्णय लिया गया कि मंदिर वहीं बनेगा, जहां मूर्ति मिली है। मंदिर तालाब के किनारे बना था, जो अब सूख गया है। सूखे तालाब में पार्क बनाया गया है। यहां नवरात्र में रामलीला होती है जो करीब 100 वर्षों से हो रही है।
मराठा समुदाय द्वारा पूजे जाने वाले प्राचीनतम व बड़े मंदिर में एक और बार मुख्य देवता की छोटी प्रतिमा देखकर जिज्ञासा जागी कि उत्तर भारत के अधिकांश मंदिरों में (सभी नहीं) मुख्य प्रतिमा, अपने जीवन में जिन दक्षिण के मंदिरों में गया हूं, वहां की तुलना में छोटी क्यों होती है।
हालांकि सटीक जवाब नहीं मिला, पर दिमाग ने बताया कि पश्चिमी व पूर्वी घाटों के निकट होने के कारण ग्रेनाइट की उपलब्धता से अधिकांश राजाओं ने इसके प्रयोग को प्रोत्साहित किया होगा। कीमत का मसला नहीं रहा होगा और चूंकि मूर्तिकला को राजाओं का संरक्षण था, ऐसे में कलाकार देवी-देवताओं की विशालकाय प्रतिमा बनाने लगे। सबसे जरूरी बात कि दक्षिणी साम्राज्य को विदेशी आक्रमणकारियों का सामना कम करना पड़ा, जबकि उत्तरी साम्राज्यों पर आक्रमण का खतरा रहता था।
मूर्ति निर्माण में शांति चाहिए होती है और उत्तरी साम्राज्यों में इसकी कमी थी। पर एक चीज का अहसास हुआ कि दक्षिण भारतीयों से विपरीत उत्तर भारतीयों के पास ‘मेक इट इजी’ दृष्टिकोण रहा। दक्षिण में श्रद्धालुओं में आत्म त्याग वाली मानसिकता ज्यादा होती है और आस्था के साथ-साथ कई नियम मानते हैं, जबकि उत्तर भारत में सिर्फ आस्था महत्वपूर्ण है। यहां ईश्वर की प्रतिमा तक पहुंचना बहुत आसान होता है।
इस विचार के साथ मैं डिनर के लिए सोनीपत के पास मुरथल में अमरिक सुखदेव दा ढाबा गया, जहां मैं रुका था वहां से 35 किमी दूर यह जगह प्रसिद्ध है। वहां अहसास हुआ कि ‘मेक इट इजी’ की अवधारण सिर्फ मंदिरों में नहीं सबके खून में है।
मुझे मालूम चला कि इस ढाबे पर, जिसकी चंडीगढ़ से लेकर दिल्ली तक पूरे नेशनल हाईवे पर, जिसे हम जीटी रोड नाम से जानते हैं, वहां कहीं कोई ब्रांच नहीं है, यहां रोजाना 60 किमी दूर तक से लोग आते हैं। इसकी प्रमुख वजह उसके मुख्य फूड बिजनेस से अलग है, उनका फोकस सिर्फ एक डिश पर रहा है ‘होम मेड बटर के साथ स्टफ्ड पराठा’ (पाश्चुरीकृत बटर नहीं)।
इसके अलावा कार पार्किंग, साफ टॉयलेट व रेस्तरां पर साफ-सफाई भी उनके बिजनेस का मुख्य स्तंभ हैं। सबसे अच्छी बात सर्विस की गति थी। रात 2 बजे भी हजारों लोग आ रहे थे, पर सर्विस की गति वही थी। पूरी जगह साफ रखने के लिए तैनात हाउसकीपिंग स्टाफ सर्विंग स्टाफ के बराबर ही था और जब बात ‘मेक इट इजी’ की हो तो यही चीज उसे बाकियों से अलग बनाती है।
फंडा यह है कि ‘टेक इट इजी’ अवधारणा उन लोगों के लिए है जो जिंदगी को सुकून से बिताना चाहते हैं पर ‘मेक इट इजी’ अवधारणा सफल और शानदार बिजनेसमैन के लिए है।
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