पिछले दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने ‘राइज़ (राइजिंग इंडिया थ्रू स्पिरिचुअल एम्पावरमेंट)’ का शुभारंभ किया। यानी अध्यात्म ही भारत की वास्तविक शक्ति बनकर उभरेगा। ब्रह्माकुमारी संस्थान की यह मुहिम एक बड़े बदलाव की बात करती है। ‘राइज़’ शुरू करने वाली ब्रह्माकुमारी, महिलाओं द्वारा चलाई जाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी आध्यात्मिक संस्था है। इसके संस्थापक प्रजापिता ब्रह्मा बाबा की कल (18 जनवरी) पुण्यतिथि भी है।
इस आध्यात्मिक मुहिम के बीच हमें समझना जरूरी है कि सामरिक रूप से शक्तिशाली होने के साथ-साथ एक राष्ट्र के रूप में हमें आंतरिक रूप से सबल और समर्थ बनना होगा। आंतरिक रूप से जागृत राष्ट्र की परिकल्पना ही आध्यात्मिक उदय है।
भारतीय दर्शन में ऐंद्रिय व अनेंद्रिय दो अनुभूतियों की चर्चा हुई है। अनेंद्रिय ही आध्यात्मिक अनुभूति है। पश्चिमी दर्शन बौद्धिक है पर भारतीय दर्शन आध्यात्मिक ज्ञान या इंट्यूटिव नॉलेज को प्रधानता देता है। एक आध्यात्मिक राष्ट्र का नागरिक आत्मिक दृष्टि से जीवन को समझता है और बुनियादी प्रश्न भी खड़े करता है।
राष्ट्र का स्वरूप कैसा हो? उचित और अनुचित क्या है? यानी हम सब अपने आप से यह सवाल करते नजर आएंगे कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? आध्यात्मिक होना कुछ ज्यादा इंसान होना होता है और जाति-धर्म, स्त्री-पुरुष, अमीरी-गरीबी के भेद से दुनिया को भी बचाना होता है। पर क्या यह इतना आसान है?
संस्थाओं के उच्च पदों पर स्त्रियों की मौजदूगी की बात करें, तो वहां भी हम पिछड़े हैं। स्त्रियों पर हो रहे अपराधों के साथ-साथ उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है। ऐसे में समझना जरूरी है कि आध्यात्मिक भाव तो सबसे पहले एक व्यक्ति के हृदय और दृष्टि में आना चाहिए जो स्त्री को एक मनुष्य ही माने।
मशहूर नाइजीरियाई लेखिका चिमामंडा एनगोजी अदीची अपनी पुस्तक ‘वी शुड ऑल बी फेमेनिस्ट’ में लिखती हैं कि इंसान की पहचान उसके जेंडर से नहीं बल्कि उसकी योग्यता से होनी चाहिए और हमें अपने लड़के-लड़कियों को यह बताना चाहिए कि दुनिया तभी बचेगी, जब यह न्यायपूर्ण होगी, जहां पुरुष भी खुश होंगे और स्त्री भी।’
कई शोध-अध्ययन बताते हैं कि अगर संस्थाओं में आध्यात्मिक लीडरशिप हो तो समावेशी माहौल बनाने में मदद मिलेगी। कुछ सवाल हमें खुद से पूछने होंगे। एक आध्यात्मिक राष्ट्र बनने के लिए मनुष्य की मनुष्यता ही तो सब कुछ है। फिर हर साल गर्मी और शीत लहर से इतने लोग मर जाते हैं और संसार इस भेद को महसूस नहीं कर पाता।
अमीर के पास तमाम सुविधाएं हैं लेकिन गरीब क्या करे। उसके जीवन में अध्यात्म का विमर्श कैसे पैदा हो? दरअसल दुनिया को बचाना ही तो सबसे बड़ा अध्यात्म है। हम जिस शहर में रहते हैं, वहां गर्मी या ठंड से परेशान होते लोगों पर हमारी नजर क्यों नहीं पड़ती? यही नजर तो आध्यात्मिक होती है।
अभी अगर दिल्ली की बात करें तो दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में करीब 162 बेघर लोगों ने अपनी जान गंवा दी। अगर भारत के राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का दर्शन आध्यात्मिकता ही है तो हमारी दृष्टि सिर्फ पैसे, लाभ, मॉल, घर, जमीन, इमारतें, दफ्तर, कार आदि पर ही नहीं पड़नी चाहिए बल्कि उस विभेद को भी कम करना चाहिए जो जाति, धर्म, स्त्री और पुरुष या गरीब-अमीर में समाज को बांटते जा रहा है। हमारी आध्यात्मिक उन्नति में वो आत्मिक दृष्टि भी होनी चाहिए जो उन पर पड़े, जो हमसे मदद चाहते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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