मूनलाइटिंग अब नई शब्दावली नहीं रही, खासकर युवाओं के बीच। लेकिन इस पर रह-रहकर बहस होती रही है। पिछले दिनों नारायण मूर्ति ने मूनलाइटिंग को नैतिकता के तराजू पर तौलते हुए इसे ठीक नहीं बताया। तो क्या मूनलाइटिंग को सिर्फ नैतिकता पर ही आंकें या बढ़ती महंगाई के बीच मूनलाइटिंग को जायज भी करार दिया जा सकता है?
किन्हीं भी दो कंपनियों या संगठनों के लिए एक साथ काम करना मूनलाइटिंग है, वो भी नियोक्ता की जानकारी के बिना। ऐसी स्थिति में नारायण मूर्ति की चिंता वाजिब लगती है क्योंकि उन्होंने इंफोसिस की नींव में नैतिकता के बीज डाले हैं।
अगर हम कंपनी के दृष्टिकोण से देखें तो कंपनी और उसके कर्मचारी की भाषा और भाव में एकात्म तभी आ सकता है जब कर्मचारी की कंपनी के प्रति निष्ठा सब कुछ हो। लेकिन कोविड काल ने युवाओं का एक नया पहलू भी दिखाया। इसने एक ऐसा युवा वर्ग खड़ा कर दिया, जो सिर्फ और सिर्फ लाभ के इरादे से मूनलाइटिंग की तरफ जा रहा है। आईटी क्षेत्र में कर्मचारियों ने रिमोट वर्किंग मॉडल का फायदा भी उठाया।
कुछ कंपनियां मूनलाइटिंग का समर्थन करती हैं, जबकि कई शीर्ष कंपनियां इसके खिलाफ हैं। टीसीएस ने कहा है कि मूनलाइटिंग एक नैतिक मुद्दा है और इसके मूल्यों और संस्कृति के खिलाफ है। अब प्रश्न है कि आखिर कोई किसी को नौकरी पर रखता है तो उससे सौ फीसदी निष्ठा की आशा करना गलत है क्या?
आखिर हम किस तरह की संस्कृति का निर्माण कर रहे हैं, जहां व्यवसायिकता का प्रश्न गौण हो रहा है। चलिए इसी क्रम में हम उस ग्रेट रेजिग्नेशन की बात करते हैं, जिसमें कोविड महामारी के बाद अचानक बढ़ोतरी हो गई। वैश्विक पेशेवर सेवा फर्म एऑन पीएलसी के नवीनतम सर्वेक्षण से पता चला है कि साल 2022 की पहली छमाही में भारत में नौकरी छोड़ने की दर लगभग 20.3% देखी गई, जो सचमुच एक महत्वपूर्ण वृद्धि है।
अगर हम मूनलाइटिंग की संस्कृति को बढ़ावा देंगे तो हर स्तर पर समाज प्रभावित होगा। जब किसी भी व्यक्ति की व्यावसायिक ईमानदारी समझौता करने लगती है तो यह चोट पारिवारिक और सामाजिक सत्यनिष्ठा पर भी पड़ती है। परिवार क्या, किसी भी राष्ट्र के लिए मूनलाइटिंग की संस्कृति सही नहीं है।
छोटे-छोटे नैतिक समझौते, वक्त के साथ हमें मोरल रीजनिंग से बहुत दूर कर देते हैं। और भारत तो जीवन मूल्यों का देश रहा है। यहां के युवाओं ने अपनी प्रतिभा से विश्व को अचंभित किया है। तो नैतिकता से क्यों नहीं? आखिर उपयोगी होने से जरूरी नैतिक, ईमानदार और सत्यनिष्ठ होना है।
मूनलाइटिंग किसी की बाध्यता नहीं है बल्कि इंसानी लालच का नतीजा है। महात्मा गांधी ने सही ही कहा था कि पृथ्वी हर आदमी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, लेकिन हर आदमी के लालच की पूर्ति नहीं कर सकती। नैतिकता को नजरअंदाज करने के गंभीर दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के आईटी क्षेत्र में काम करने वालों में 43% का मानना है कि मूनलाइटिंग सही है। नारायण मूर्ति ने जिस इंटीग्रिटी की बात कही है, क्या हम उसे भूल जाएं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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