सोशल मीडिया और उसके प्रभाव पर बहुत कुछ लिखा और सुना जा चुका है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ओर से यह चिंता फिर से रखी गई है। वे कहते हैं, ‘आज हम एक ऐसे युग में रहते हैं जहां लोगों में धैर्य और सहनशीलता की कमी हो रही है। आज हम उन दृष्टिकोण को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, जो हमारी राय से भिन्न हैं। झूठी खबरों के दौर में सच शिकार हो गया है।’
अगर हम उनकी चिंता पर गौर करें तो पाएंगे कि एक ओर हम अपनी प्रतिक्रियाओं में कैजुअल होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर असहमति एक कभी समाप्त ना होने वाले विद्वेष का रूप लेती जा रही है। और ये परिस्थितियां मानसिक विकारों की भी वजह बन रही हैं।
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों के 13 से 75 वर्ष के बीच के 12 हजार लोगों पर एक व्यापक अध्ययन हुआ। इससे यह पता चला कि उनमें से 90% लोग गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। इस सर्वेक्षण का यह उद्देश्य था कि व्यक्ति का तनाव और इससे निपटने की क्षमता, अवसाद और सोशल मीडिया की लत के स्तर की जानकारी ली जाए!
इस अध्ययन से पता चला कि हर छह सोशल मीडिया एडिक्ट्स में से एक व्यक्ति में अवसाद, चिंता और असामाजिक व्यवहार सहित स्वास्थ्य समस्याएं विकसित होने की आशंका है। यह तो हुई सोशल मीडिया से बनते नए सत्य का ग्रामीण चेहरा। अब शहर की ओर मुड़ते हैं।
लोकल सर्कल्स नामक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक 55% शहरी भारतीय माता-पिता ने खुलासा किया है कि उनके 9 से 13 साल के बच्चों के पास पूरे दिन स्मार्टफोन की पहुंच है। 71% माता-पिता ने स्वीकार किया कि उनके 13 से 17 साल के बच्चे पूरा दिन स्मार्टफोन देखते हुए बिताते हैं।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सोशल मीडिया पर निर्भरता और इसके अत्यधिक उपयोग से बच्चों को खराब नींद, तनाव, चिंता, अवसाद, चिड़चिड़ापन, कम आत्मसम्मान और ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई की समस्याएं हो रही हैं। इंडियन मार्केट रिसर्च ब्यूरो के अनुसार 18-24 साल के युवा प्रतिदिन औसतन 28 मिनट सोशल मीडिया पर रील्स देखते हुए बिता रहे हैं।
सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों पर मौजूद शॉर्ट वीडियोज़/रील्स के कंटेंट पर गौर करें। हालांकि यह आपकी सर्च हिस्ट्री के आधार पर एल्गोरिद्म आधारित सुझाव देता है। इसलिए आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है कि आपका फोन आपके बारे में क्या कहता है।
समय आ गया है कि अपने मोबाइल पर मौजूद कंटेंट के लिए हम खुद अपने सेंसर-बोर्ड बन जाएं और अच्छी दिमागी खुराक लें, क्योंकि सहजता से उपलब्ध स्तरहीन कंटेंट बच्चों और किशोरों का भविष्य बर्बाद कर रहा है। बच्चों को फोन से दूर रहने जैसी सीख देने वाले माता-पिता को खुद भी इससे दूरी बनानी होगी। हम अपने आप को डिजिटली डिटॉक्स करें। वो डोपोमाइन जो इस डिजिटल स्क्रीन को देखकर बनता है उसे थोड़ा विराम दें। अपना ध्यान सही कार्य में लगाएं।
छह इंच की मोबाइल स्क्रीन भविष्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बन रही है। शॉर्ट वीडियोज़, रील्स के नाम पर परोसा जा रहा कंटेंट सेंसरशिप से परे है, इसलिए बच्चों के लिए खतरा कहीं ज्यादा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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