आज साहित्य की बात करते हैं। कहानियों की चर्चा करते हैं। कहानियां दरअसल लिखी या कही नहीं जातीं। ये घटती हैं… और चैतन्य रूप से हमारे भीतर या बाहर जो कुछ घटता है, वही कहीं न कहीं, कभी न कभी, किसी न किसी कलम के जरिए कहानी का रूप लेता है।
वास्तव में, जिंदगी के कई ऐसे पल होते हैं, जो वक्त की कोख से जन्मते हैं और वक्त की कोख में ही गिर जाते हैं, कभी-कभी ये ही पल हमारे सामने खड़े हो जाते हैं। हम सोचते हैं वक्त की ये कब्रें कैसे खुल गईं? और ये पल जीते-जागते कब्रों से कैसे निकल आए? यह कयामत का दिन या रात तो नहीं? हम ऐसी घटनाओं को यादें भी कह सकते हैं। फिर खयाल आता है कि यादें अगर जिंदा होतीं तो उन्हें पास बैठाकर गपशप करते। हंसी-ठट्ठा करते! लेकिन यह कहां सम्भव है?
खैर, हम जिस दौर में किताबी साहित्य की बात कर रहे हैं, उसमें किताबें पढ़ने का समय बहुत कम रह गया है। किताबें पढ़ने वाले लोग ही कम हो चले हैं। टेक्स्ट-बुक से इतर कोई बात की जाए तो सच्चाई यह है कि अब तो फेसबुक और वॉट्सएप पर ही सारी पढ़ाई हो जाती है।
चूंकि पढ़ते यहां हैं, इसलिए लिखना- लिखाना भी पूरी तरह फेसबुक और वॉट्सएप पर ही हो जाता है। अब हम पढ़ाकू या लिक्खाड़ नहीं, बल्कि फेसबुकिए या वॉट्सएपिए कहलाना ज्यादा पसंद करने लगे हैं। जमाना ही ऐसा है, कोई करे तो क्या करे?
कई जाने-माने लेखक और साहित्यकार आज की युवा पीढ़ी को पढ़ने-लिखने की सलाह देते हैं। कहते हैं फेसबुक और वॉट्सएप से हटकर कुछ किताबों में झांकिए। कुछ कहानियों से जूझिए। कुछ नहीं तो दादा-नाना के लिखे उन पुराने अंतर्देशीय पत्रों को ही पढ़ लीजिए।
कुछ न मिले तो पुरानी, जिल्द फटी कॉपियों या कैलेंडर के कोरे कोने में लिखे हुए दूध के हिसाब को ही पढ़ लीजिए। मगर रोज कुछ पढ़िए जरूर! …और कुछ नहीं तो अपनी दादियों-नानियों से कुछ कहानियां, कुछ किस्से सुन लीजिए! लेकिन सुनिए जरूर। सुनना इसलिए जरूरी है क्योंकि इससे हमारे भीतर धैर्य का संचार होता है। हमारी सोच का दायरा बढ़ता है। उसको नया आयाम मिलता है।
…और इस वक्त जब दुनिया में होड़ मची है, आगे बढ़ने की, पीछे छोड़ने की, तब बहुत जरूरी है कि हम अपनी सोच को भी आगे बढ़ाएं। हर स्तर पर। हर मौके पर। चाहे वह युद्ध की स्थिति हो या गृह युद्ध की। पढ़ने-लिखने की स्थिति हो या पढ़ाने-लिखाने की। हर हाल में सोच ऊंची ही होनी चाहिए। …और यह सब पढ़ने से ही सम्भव हो सकता है।
यही वजह है कि तमाम बड़े लेखक, साहित्यकार युवा पीढ़ी को किताबें पढ़ने की सलाह दे रहे हैं। जैसे कहावत है कि मरे बिना स्वर्ग नहीं मिल सकता, वैसे ही कहा जा सकता है कि पढ़े बिना भीतर का ज्ञान मिलना सम्भव नहीं है।
किताबें इसलिए जरूरी हैं,क्योंकि इनमें जो भावुकता, खयालों की जो उड़ान आप महसूस कर सकते हैं, वो वॉट्सएप या फेसबुक पर पढ़ने या लिखने से कभी नहीं मिल सकती। कभी भी नहीं। इसलिए नहीं कि इन पर लिखा कुछ भी अच्छा नहीं होता, बल्कि इसलिए कि इन्हें पढ़ते वक्त चित्त में वो किताबों वाली गम्भीरता नहीं आ पाती।
इस वक्त जब दुनिया में होड़ मची है, आगे बढ़ने की, पीछे छोड़ने की, तब बहुत जरूरी है कि हम अपनी सोच को भी आगे बढ़ाएं। हर स्तर पर। हर हाल में सोच ऊंची ही होनी चाहिए। ...और यह सब पढ़ने से ही सम्भव हो सकता है।
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