क्या ससुराल में रहने का स्त्रियों के सशक्तीकरण पर असर पड़ता है? हां, यह सच है। लेकिन एक नई रिपोर्ट आपको चकित कर देगी। भारतीय सास की विशेष छवि लोगों के मन में बनी हुई है कि वे पुराने खयालों की होती हैं, बहू पर अत्याचार करती हैं, उसकी आजादी को बाधित करती हैं आदि। यह छवि लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा है।
टेक सेक्टर में मर्सर इंटरनेशनल इनकॉर्पोरेशन के एक अंदरूनी विश्लेषण से पता चला है कि उनके युवा कर्मचारियों में 40 प्रतिशत महिलाएं होती हैं, लेकिन जब बात प्रबंधन के माध्यमिक स्तरों की आती है तो उनकी सहभागिता घटकर 20 प्रतिशत हो जाती है और केवल 10 प्रतिशत महिलाएं ही लीडरशिप पोजिशन तक पहुंच पाती हैं। विवाह और मातृत्व इसके प्रमुख कारण हैं। लेकिन स्त्रियों के करियर में सबसे ज्यादा रुकावट आती है ससुराल में रहने की बाध्यता से।
एक तरफ तो दुनिया में कामकाजी महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है, दूसरी तरफ भारत में यह संख्या आज भी बहुत कम है। दुनिया में न्यूक्लियर फैमिली बढ़ रही हैं, वहीं भारत में बच्चों की अपने माता-पिता के साथ रहने की प्रवृत्ति दूसरे देशों की तुलना में अधिक है। तो क्या इन दोनों के बीच कोई सम्बंध है?
राजश्री जयरामन और बिस्मा खान के द्वारा यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में कामकाजी महिलाओं के करियर में स्पष्टतया एक यू-शेप दिखलाई देता है। मिड-फोर्टीज़ में पीक पर पहुंचने के बाद उसमें गिरावट देखी जाती है। काम बढ़ने से पैरेंट्स के साथ रहना मुश्किल होता चला जाता है। दूसरी तरफ संयुक्त परिवार में रहने से स्त्रियों को सम्पत्तियों में सहभागिता का लाभ मिल सकता है, जिससे नौकरी करने की उनकी जरूरतें कम हो जाती हैं।
इसका एक अन्य कारण यह भी है कि संयुक्त परिवार में स्त्रियों की घरेलू जिम्मेदारियां बहुत बढ़ जाती हैं, जिनमें बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की देखभाल करना और रसोई और साफ-सफाई आदि का काम करना शामिल है। सबसे बड़ी बात यह है कि आज भी भारत में कामकाजी महिलाओं पर लैंगिक प्रतिबंध लागू होते हैं, जिससे उनके लिए घर से बाहर जाकर काम करना मुश्किल हो जाता है या उन्हें अपने काम के घंटों में कटौती करना पड़ती है।
रिसर्चरों ने यह चौंकाने वाला तथ्य भी पाया कि सास के बजाय ससुर के कारण महिलाओं के कामकाजी जीवन पर अधिक असर पड़ता है। सास की तुलना में ससुर की वजह से स्त्रियों के घर से बाहर जाकर काम करने की सम्भावनाओं में 13 प्रतिशत की कमी आती है। यह इस आम धारणा को चुनौती देता है कि भारत में महिलाएं ही महिलाओं के विकास में बाधा बनती हैं।
आज भी अधिकांश संयुक्त परिवारों में घर के पुरुष मुखिया का ही दबदबा रहता है, जबकि सास आदि अकसर रसोईघर तक सीमित रहती हैं। सम्पत्ति पर ससुर के स्वामित्व से भी वह नियंत्रक भूमिका में आ जाते हैं। वास्तव में हम जिस तरह के पितृसत्तात्मक समाज में रहते हैं, उसमें हमें इस सच का सामना करने के लिए किसी रिपोर्ट की जरूरत नहीं है कि संयुक्त परिवारों में रहने वाली स्त्रियों की अपने घर से बाहर की दुनिया में कम आवाजाही रहती है, जिससे उनकी वित्तीय स्वायत्तता प्रभावित होती है।
आज जब भारत में मातृत्व अवकाश को साढ़े छह महीने तक बढ़ाने की तैयारी की जा रही है तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इस बारे में विचार करने लगी हैं कि विवाह और संतानोत्पत्ति के बाद महिला कर्मचारियों को कैसे काम पर बनाए रखें।
हाल ही में भारत में जनरल इलेक्ट्रिकल ने एक कार्यक्रम में अपनी महिला कर्मचारियों की सास को बुलाकर उन्हें दिखाया कि उनकी बहुएं पूरा दिन क्या काम करती हैं। इसका सास के व्यवहार पर खासा असर पड़ा। एक कर्मचारी ने बताया कि उनकी सास ने अपने बेटे को डपटकर कहा कि भोजन की थाली वह लगाए, क्योंकि बहू के पास भी जरूरी काम हैं!
हम जैसे पितृसत्तात्मक समाज में रहते हैं, उसमें इस सच का सामना करने के लिए हमें किसी रिपोर्ट की जरूरत नहीं है कि संयुक्त परिवारों में रहने वाली स्त्रियों की अपने घर से बाहर की दुनिया में कम आवाजाही रहती है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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