हाल ही में दिल्ली में पदस्थ एक वरिष्ठ राजनयिक ने मुझसे कहा एक विदेशी विश्लेषक के लिए भारत में सबसे मुश्किल है यहां की राजनीति समझना। यहां इतने दल हैं, इतने समीकरण हैं, जातिगत फैक्टर आदि हैं, जो उनकी समझ से परे हैं। इसकी तुलना यूरोप से करें, जहां प्राचीनकाल से ही एक सुविचारित राजनीतिक-दर्शन विकसित किया गया था, मूलत: यूनान में। उन्होंने आश्चर्य जताया कि क्या भारत जैसी महान सभ्यता और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में भी कभी राजनीतिक दर्शन की विकसित परम्पराएं रही होंगी?
मैंने तुरंत उन्हें दुरुस्त किया कि यूरोपियन देशों में भी राजनीतिक अस्थिरता रही है, विशेषकर इटली में। लेकिन इससे भी बढ़कर यह कि प्राचीनकाल में भारत में एक बहुत ही परिष्कृत राजनीतिक-दर्शन था, जिसने हमारे संविधान और हमारे लोकतंत्र दोनों पर असर डाला है। पोलिटिकल थ्योरी की दुनिया की सबसे पुरानी किताबों में से एक कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ भारत में लगभग 2500 साल पहले लिखी गई थी।
यूरोपियनों ने कौटिल्य को भारत का मैकियावेली कहा है, जबकि मैकियावेली का जन्म कौटिल्य से कोई दो हजार साल बाद हुआ था। उसे यूरोप का कौटिल्य कहा जाना चाहिए! भारत में प्राचीनकाल में राजनीतिशास्त्र पर और भी कई महत्वपूर्ण ग्रंथ थे, जैसे ‘महाभारत’ का ‘शांतिपर्व’, ‘रामायण’ के कुछ अंश, ‘धर्मशास्त्र’, तिरुवल्लुर का ‘तिरुक्कुरल’ और बाद में गुप्तकाल में कमंडक का ‘नीतिसार’ और जैन विद्वान सोमदेव सूरी का ‘नीतिवाक्यमृत’।
कौटिल्य ने यह भी लिखा है कि उनकी पुस्तक से पहले भी भारत में राजनीतिक-दर्शन की कम से कम पांच धाराएं प्रचलित थीं, जिनके लिए तेरह लेखकों ने योगदान दिया था। प्राचीन भारत ‘ऋत’ में विश्वास करता था, जिसका अर्थ है व्यवस्था, नियम, धर्म और कानून का राज। ऋत का विलोम अराजकता है, जिसे जंगलराज की संज्ञा दी जा सकती है। ऐसी अवस्था को ‘मत्स्य न्याय’ कहा जाता था, जिसमें बलवान का बोलबाला होता है और बड़ी मछली छोटी को खा जाती है।
राजा का धर्म था ऋत का पालन करवाना और अराजकता को टालना। एक अच्छा राज्य वह होता था, जिसमें ‘सप्तांग’ हों : राजा, मंत्रिपरिषद, राजधानी, क्षेत्र, राजकोष, सेना और विदेशी गठबंधन-सहयोगी। राजकाज के मुख्यतया दो आयाम थे और ऊपर-ऊपर से देखें तो दोनों एक-दूसरे से विपरीत मालूम होते थे, लेकिन उनमें तारतम्य था। पहला राज्य के हितों की रक्षा से सम्बद्ध था। वह राजा को शक्तिशाली बनाता और शत्रुओं को दूर रखता था।
इसके लिए राज्यसत्ता का कठोर, निर्मम और नैतिकता से मुक्त होना जरूरी था, वह अपने हित में साम-दाम-दंड-भेद का उपयोग कर सकती थी। दूसरा आयाम इससे ठीक विपरीत था। यह सत्ता को नियंत्रित करने की बात करता था। यह कहता था कि शासक चाहे जितना शक्तिशाली हो, उसे वैधता प्रजा के समर्थन से ही मिलती है। उसके लिए यह जरूरी था कि वह प्रजा की धारणाओं के प्रति संवेदनशील हो और लोगों पर अतिशय कर न लगाए।
कालिदास ने एक शासक के राजधर्म को परिभाषित करते हुए कहा है कि उसके लिए लोककल्याण के लिए काम करना अपरिहार्य है। उसे अपने मंत्रियों का चयन भी उनके गुणों के आधार पर करना चाहिए। वहीं मंत्रियों से भी यह अपेक्षा थी कि वे बिना किसी डर-संकोच के अपने विचारों को सामने रखें। ‘अर्थशास्त्र’ दो टूक शब्दों में कहता है कि प्रजा के हितों के विरुद्ध कार्य करना अधर्म है।
‘महाभारत’ में तो अत्याचारी शासक के विरुद्ध विद्रोह की भी अनुमति दी गई है। साथ ही कहा गया है कि अगर उत्तराधिकारी योग्य न हो तो उसे सिंहासन पर आरूढ़ नहीं होना चाहिए। ‘अर्थशास्त्र’ में प्रशासनिक संरचनाओं, वित्त व्यवस्था, सेना और विदेश नीति के बारे में भी निर्देश हैं। इनमें से अनेक सिद्धांत आज भी प्रासंगिक हैं। लेकिन मेरे विदेशी मित्र भला इस सबको कैसे जानते?
‘अर्थशास्त्र’ छठी शताब्दी में नष्ट हो गया था और 1905 में मैसूर में ताड़ के पत्तों की एक पांडुलिपि से पुन: प्राप्त हुआ था। इसकी तुलना में यूरोपियन राजनीतिक चिंतकों की किताबें बड़ी संख्या में प्रकाशित हुईं और पूरी दुनिया में पढ़ी गईं। विडम्बना यह है कि आज भी भारत में हमारे राजनीतिक चिंतन की विरासत पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता, उन पर न के बराबर अकादमिक शोध होते हैं और हमारे राजनेताओं की भी उनमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है।
विडम्बना है कि आज भी भारत में हमारे राजनीतिक चिंतन की विरासत पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता, उन पर न के बराबर अकादमिक शोध होते हैं और हमारे राजनेताओं की भी उनमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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