बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्र शेखर- जो कि राष्ट्रीय जनता दल के हैं- ने हाल ही में कहा कि तुलसीदास की रामचरितमानस सामाजिक विभेद को प्रचारित करती है और समाज में घृणा फैलाती है। मेरा मत है कि जब हम इस तरह की बातें करते हैं तो रामचरितमानस की मूल भावना के प्रति घोर अज्ञान को ही प्रदर्शित करते हैं। मेरी समस्या इस बात से नहीं है कि मानस की आलोचना की जा रही है, क्योंकि हिंदू धर्म में आलोचकों का स्वागत किया जाता है।
मिसाल के तौर पर ईसा पूर्व 7वीं शताब्दी में भौतिकवादी चार्वाक परम्परा की स्थापना करने वाले बृहस्पति ने वेदों की प्रामाणिकता को प्रश्नांकित किया था, लेकिन इसे ईशद्रोह नहीं समझा गया। उलटे चार्वाकों को भी हिंदू धर्म का अंग ही स्वीकारा गया है।
महात्मा गांधी- जो गरीबों और शोषितों के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे- ने रामचरितमानस को भक्ति-साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृति माना है। तुलसीदास के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम थे। उनके लिए राम उपनिषदों और अद्वैत दर्शन के अदृष्ट, अचिंत्य, अखंड, सर्वव्यापी, पूर्ण और निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप थे। उन्होंने लिखा है : राम ब्रह्म परमार्थ रूपा, अबिगत अलख अनादि अनूपा॥ यानी श्रीराम स्वयं ब्रह्म हैं। वे सर्वोच्च सत्ता, अज्ञात, अलक्ष्य, अनादि, अतुल्य, अपरिवर्तनशील और समस्त विविधताओं के परे हैं।
अगर राम निर्गुण सत्ता का सार हैं तो उनका मानवीय अवतार उनका सगुण रूप है। लेकिन दोनों में अभेद है। तुलसी लिखते हैं : अगुण सगुण दुई ब्रह्म स्वरूपा, यानी निर्गुण और सगुण एक ही ब्रह्म के दो आयाम हैं। या जैसा उन्होंने एक अन्य स्थान पर कहा है : अगुण अरूप अलख अज जोई, भगत प्रेम बसा सगुण सो होई॥ यानी भक्त के प्रेम के कारण निर्गुण ब्रह्म ही सगुण बन जाता है।
जिस मानस में राम को निर्गुण चेतना निरूपित किया गया है, जो संसार में व्याप्त हैं और हममें भी आत्मस्वरूप की तरह उपस्थित हैं, उसे सामाजिक विभेदकारी कैसे कहा जा सकता है? मानवीय विभेद माया का परिणाम हैं। जब लक्ष्मण ने राम से माया को विवेचित करने को कहा तो- तुलसी के शब्दों में- राम ने इस अभूतपूर्व काव्य-युक्ति के माध्यम से उत्तर दिया : मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥ यानी मैं, मेरा, तू, तेरा की भ्रान्तिपूर्ण धारणा ही माया है, जो सभी जीवों को भरमाए रखती है।
राम आगे कहते हैं : ग्यान मान जहं एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥ यानी आध्यात्मिक मेधा को श्रेष्ठता या गौरव का भान नहीं होता, वह सभी में समान रूप से सर्वोच्च चेतना को देखती है। अपने सगुण रूप में राम करुणा के प्रतीक हैं। उनके जन्म के प्रसंग पर तुलसी लिखते हैं : भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी॥ यानी दीन-दु:खियों के दयालु और कौशल्या के हितकारी श्रीराम प्रकट हुए हैं। भरत से राम ने कहा था : परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥ तुलसी की भक्ति में भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं है।
शबरी से भेंट के दौरान राम लक्ष्मण से कहते हैं : जाति पांति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥ भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥ अर्थात्, जाति, पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य वैसा है, जैसे जलहीन बादल। रामचरितमानस में 12800 पंक्तियां और 1073 दोहे हैं। यह सात खण्डों में विभक्त है। विश्व-साहित्य की महानतम कृतियों में इसकी गणना होती है और हिंदुओं के लिए इसका वही महत्व है, जो ईसाइयों के लिए बाइबिल का है।
ऐसे महाकाव्य में से एक या दो पंक्तियां उठा लेना- जो कि प्रक्षिप्त भी हो सकती हैं- और उसके आधार पर समूचे ग्रंथ के प्रति दुर्भावना व्यक्त करना अक्षम्य है। जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव तब भी उतना ही निंदित था, जितना आज है। तुलसी अपने कालखण्ड की उत्पत्ति थे और वे समाज-सुधारक नहीं थे। शायद उनके कुछ पूर्वग्रह रहे हों, लेकिन यह कहना कि मानस घृणा को प्रचारित करती है, एक भीषण भूल है।
यह इस ग्रंथ की उस दार्शनिक प्रकृति के प्रति अज्ञान का परिचय देना है, जिसमें निर्गुण ब्रह्म के प्रतीक राम सभी में समान रूप से अवस्थित हैं। जो सार्वजनिक जीवन में हैं, उन्हें सामान्यीकरणों से बचना चाहिए। तुलसीदास जानते थे ऐसा क्यों किया जाता है। तभी तो कहा था : नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥ यानी संसार में ऐसा कोई जन्मा नहीं, जो सत्ता से मदांध न हो गया हो।
यह कहना कि रामचरितमानस घृणा को प्रचारित करती है, भीषण भूल है। यह उसकी उस दार्शनिक प्रकृति के प्रति अज्ञान का परिचय देना है, जिसमें निर्गुण ब्रह्म के प्रतीक राम सभी में समान रूप से अवस्थित हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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