आपने सोचा होगा कि कोरोना का संकट हमारे देश को एकजुट कर देगा, लेकिन भारत निराशाजनक रूप से विभाजित ही रहा। वैक्सीन की स्पष्ट समस्या राजनीतिक फुटबॉल का विषय बन गई। अचानक आभास हुआ कि दुनिया में वैक्सीन के सबसे बड़े उत्पादक और निर्यातक भारत में कोविड वैक्सीन का गंभीर संकट पैदा हो गया है।
सरकार वैक्सीन निर्माता को 1. एडवांस ठेका देना भूल गई। 2. उसे एक ऐसी किफायती कीमत प्रस्तावित करना भूल गई, जिससे उसे प्रोत्साहन मिलता। 3. वैक्सीन लगाने के कार्यक्रम में निजी अस्पतालों, एनजीओ, कॉरपोरेट्स और निजी संस्थानों को शामिल करना भूल गई।
इस ड्रामे की शुरुआत 18 अप्रैल को तब हुई, जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर वैक्सीनेशन कार्यक्रम में तेजी लाने के उपाय सुझाए। दूसरे दृश्य में, मनमोहन के इस नेकनीयत वाले पत्र ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन को उकसा दिया और उन्होंने कांग्रेस पर कोविड की दूसरी लहर में योगदान का आरोप लगाते हुए कहा कि उसने कुछ कांग्रेस शासित राज्यों में वैक्सीन पर सवाल उठाकर लोगों में वैक्सीन के प्रति गैर जिम्मेदाराना संदेह पैदा किया। तीसरे दृश्य में, 19 अप्रैल को केंद्र ने वैक्सीन नीति में महत्वपूर्ण बदलाव की नाटकीय घोषणा की।
सरकार ने निजी क्षेत्र पर अपने रुख को नरम किया। चौथे दृश्य में वैक्सीन निर्माताओं ने क्षमता में तेजी लाने का वादा करते हुए भारत के लोगों को वैक्सीन लगाने का समय नाटकीय रूप से कम कर दिया। राहुल गांधी ने 18 से 45 साल के लोगों को मुफ्त वैक्सीन न लगाने पर सरकार की नीति पर हमला बोला। इस नाटक का पर्दा तक गिरा जब ममता ने प्रधानमंत्री मोदी पर बंगाल का चुनाव जीतने के लिए कोविड की दूसरी लहर लाने का आरोप लगा दिया।
इस ड्रामे से क्या सबक मिलता है? हर्षवर्धन एक मृदुभाषी व्यक्ति हैं। मनमोहन के पत्र पर उनका कटु जवाब भारतीय राजनीति की गंभीर बीमारी की ओर इशारा करती है। लोकतंत्र सहयोग के मूल नियम के साथ मतभेदों को स्वीकार करता है। ममता की टिप्पणी से तब ही कुछ अर्थ निकलता है अगर आप बंगाल के चुनाव को अस्तित्व की लड़ाई मानते हैं।
दूसरा सबक : भारतीय नेताओं ने शायद गणतंत्र को बांट दिया था, लेकिन देश की क्षमताओं में भरोसे को लेकर वे हमेशा एकजुट रहे। वे निजी लोगों, निजी कंपनियों और निजी एनजीओ पर अविश्वास करते रहे। अगर उन्होंने समाज और बाजार पर भरोसा किया होता तो शुरुआती जांच और वैक्सीनेशन अधिक समझदारी भरा होता। इसके बजाय उन्होंने अफसरशाही पर भरोसा किया। उधर वैक्सीन रणनीति पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया निश्चित ही उसकी अज्ञानता और निजी सेक्टर की अवमानना है।
तीसरे, जो लोग सोचते हैं कि भारत में अब स्वतंत्रता नहीं है तो उन्हें पिछले सप्ताह वैक्सीन नीति को लेकर हुई बहस देखना चाहिए। केवल कांग्रेस ही नहीं, अर्थशास्त्रियों, नीतिशास्त्रियों और सोशल मीडिया पर इसकी भरपूर आलोचना हुई। ये किसी परतंत्र देश के संकेत तो नहीं हैं।
चौथा, हर्षवर्धन की दुर्भाग्यपूर्ण प्रतिक्रिया रक्षात्मक ही थी। क्योंकि भाजपा लंबे समय से पुराने अभिजात्य वर्ग की कृपालुता का विषय रही है, जिससे उसमें गहरी नाराजगी है। कांग्रेस को अपनी श्रेष्ठता का वहम है। वह भाजपा को उस रईस की तरह देखती है, जिसने धन तो पा लिया है, लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल नहीं की है।
इसका अंतिम परिणाम एक विभाजक रेखा है जिसे एक-दूसरे के सम्मान की कमी से परिभाषित किया जा सकता है। अवमानना को मिटाना एक असफल विवाह को बचाने की कोशिश जैसा है। लेकिन, जब देश दांव पर हो, तो लोग ही कष्ट उठाते हैं। और निश्चित ही, घृणा के इस दौर में कोविड के समय वे ही दुख उठा रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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