सात प्रकार के सामाजिक पाप होते हैं। गांधीजी ने इनका वर्णन भी किया है और उनके अनुसार इन सात में से एक पाप है विवेक के बिना अवकाश। यहां अवकाश का अर्थ केवल छुट्टी लेना नहीं है। इसका मतलब है एकांत। जब हम दूसरों से बहुत अधिक निकट न हों।
जब हम अपने रूटीन कार्य से हटकर कुछ अकेले कर रहे हों। जब हम आराम करने की मुद्रा में हों उसे अवकाश कहेंगे। गांधी ने इसके साथ विवेक क्यों जोड़ा? क्योंकि मनुष्य के पतन की संभावना सबसे अधिक तब होती है जब वह अकेले में होता है। अवकाश उसे पशु बना सकता है। इसीलिए इस समय विवेक जाग्रत रहना चाहिए। एकांत दिव्य कैसे हो इसके लिए हमारे ऋषि-मुनियों ने एक विधि बनाई है प्रार्थना।
प्रार्थना भले ही आप सामूहिक रूप से करें पर होती एकांतिक घटना है। पूजा भी ऐसी ही है। जब हम पूजा-प्रार्थना कर रहे होते हैं तो हमारे और भगवान के बीच कोई नहीं होता। ये एक ऐसी बातचीत होती है जो न तो किसी को सुनाई देगी, न दिखाई देगी।
जिस दिन हम इस तरह की पूजा-प्रार्थना करते हैं तो फिर भगवान भी हमसे बात करने के लिए तैयार हो जाता है। लेकिन हमारे पास सबकुछ रटा-रटाया है। इसलिए हमारा एकांत ऐसा नहीं हो पाता। गांधी ठीक कहते हैं अवकाश में विवेक जगाओ तो ईश्वर खुलकर बात करेगा।
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