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पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:प्रार्थना और स्तुति के बीच का अंतर समझें

2 महीने पहले
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पं.विजयशंकर मेहता - Dainik Bhaskar
पं.विजयशंकर मेहता

हमें प्रार्थना और स्तुति दोनों का अंतर समझना चाहिए, क्योंकि अलग-अलग अवसरों पर हम दोनों से ही गुजरते हैं। प्रार्थना में हम परमपिता परमेश्वर से कुछ मांग रहे होते हैं। ऐसे समय हो सकता है हममें दीन भाव हो, अपेक्षाएं अधिक हों।

लेकिन जब हम स्तुति करते हैं तो ईश्वर के उस स्वरूप को याद कर रहे होते हैं जो कृपा बरसाता है। स्तुति करते समय दो लक्षण हमारे शरीर में होना चाहिए- वाणी गदगद हो जाए और शरीर पुलकित हो जाए। एक-एक शब्द ऐसा निकले जैसे मस्ती से सहज भीतर से बाहर आ गए हों। यहां शब्दों का कोई तिलिस्म न हो।

कलाकारी के साथ शब्द सजाए गए न हों। प्रार्थना एक बार फिर भी आयोजन होगी, पर स्तुति तो सिर्फ आनंद ही होगी। श्रीराम की प्रशंसा वेदों ने की और वेद जब चले गए तो शंकरजी आए। तुलसी लिखते हैं- बैनतेय सुनु संभु तब आए जहं रघुबीर। बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर॥

काकभुशुण्डिजी कह रहे हैं- तब शिवजी वहां आए और गदगद‍ वाणी से श्रीराम की स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया। यानी वाणी में रस था और शरीर भाव में डूबा हुआ। स्तुति ऐसी ही की जाना चाहिए।

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