जीवन के प्रति दो दृष्टिकोण हो सकते हैं। एक संघर्ष का और दूसरा सहयोग का। हम लोग मान कर चलते हैं कि जीवन में अगर कुछ पाना है, तो संघर्ष करना ही पड़ेगा। ऐसा सही भी हो सकता है। लेकिन हम लोग इस बात पर अधिक जोर दें कि जीवन सहयोग का नाम है। संघर्ष में अशांति है और सहयोग में शांति है।
भगवान शंकर प्रभु श्रीराम की स्तुति करते हुए कहते हैं- ‘गुणशील कृपा परमायतनम्। प्रणमामि निरंतर श्रीरमणम्। रघुनंद निकंदय द्वंद्व घनम्। महिपाल विलोकय दीन जनम्।’ ‘आप गुण-शील और कृपा के परम स्थान हैं। आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूं।
हे रघुनंदन! आप जन्म-मरण, सुख-दुख, राग-द्वेष आदि द्वंद्व समूहों का नाश कीजिए। इस दीन की ओर भी दृष्टि डालिए।’ यहां शिव जी ने द्वंद्व समूह का बड़ा अच्छा प्रयोग किया है। जीना-मरना, सुख-दुख और राग-द्वेष यही द्वंद्व है। और जहां द्वंद्व है, वहीं संघर्ष है। हम लोग इसी में उलझ जाते हैं।
इसीलिए शिव जी ने लक्ष्मीपति का भी उद्बोधन किया है। हम सब लक्ष्मीपति बनना चाहते हैं। अपनी गरीबी मिटाने के लिए इतना संघर्ष करते हैं। पर इस सब जद्दोजहद में एक दूसरे दृष्टिकोण से गरीब हो जाते हैं। जिंदगी में दौलत तो आ जाती है, पर शांति चली जाती है। ये भी एक गरीबी है। तो द्वंद्व मिटाइए और जीवन को सहयोग की दृष्टि से देखिए।
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