राजदीप सरदेसाई का कॉलम:नीतीश की विदाई के बाद अब एनडीए में भाजपा ही एकछत्र

10 महीने पहले
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राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार - Dainik Bhaskar
राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार

अगर ओलिम्पिक में राजनीति का कोई जिमनास्टिक होता तो नीतीश कुमार यकीनन उसमें स्वर्ण पदक के दावेदार होते। 17 सालों में आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले नीतीश ने बता दिया है कि सियासी चतुराई में उनका सानी नहीं और पालाबदल उनके राजनीतिक डीएनए का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। इससे यह भी जाहिर हुआ कि आज भाजपा-विरोधी विपक्ष कितनी बेचैनी से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।

अगर नीतीश ने भाजपा से नाता तोड़कर एक बार फिर अपने पुराने मित्र-शत्रु लालू यादव की पार्टी से हाथ मिलाया है तो इसका कारण यह नहीं है कि उनका हृदय-परिवर्तन हो गया है। भाजपा धीरे-धीरे जदयू के सामाजिक और राजनीतिक आधार में सेंध लगाती जा रही थी और महाराष्ट्र में उसने जिस तरह से उलटफेर किया, उसने नीतीश की घबराहट में इजाफा कर दिया था।

इस भाजपा-फोबिया से ग्रस्त रहने वाले नीतीश अकेले नहीं हैं, बीते तीन सालों में भाजपा के दो और गठबंधन सहयोगी- अकाली दल और शिवसेना- एनडीए का साथ छोड़ चुके हैं, जबकि अन्नाद्रमुक और लोजपा भी अंदरूनी कशमकश के दौर से गुजर रहे हैं। देखें तो अब एनडीए खत्म ही हो गया है और उसकी जगह मोदी-शाह की भाजपा ने ले ली है।

अटल-आडवाणी के दौर में एनडीए एक व्यापक गठबंधन हुआ करता था, जिसमें भांति-भांति की कांग्रेस-विरोधी पार्टियां आ मिली थीं। समाजवादी जॉर्ज फर्नांडिस से लेकर फायरब्रांड नेत्री ममता बनर्जी और हिंदुत्ववादी बाल ठाकरे तक सभी इस गठजोड़ का हिस्सा थे। लेकिन 2014 में मोदी-शाह की भाजपा के उदय के बाद से अभी तक एनडीए 20 से ज्यादा सहयोगी-दलों को गंवा चुका है।

सच कहें तो जिस तेजी और कुशलता से भाजपा ने अपना साम्राज्य खड़ा किया, उसने उसके पुराने सहयोगियों को चकित ही किया है। बिहार में जदयू प्रमुख पार्टी हुआ करती थी, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों में भाजपा बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। चिराग पासवान ने जिस तरह से भाजपा की शह पर जदयू उम्मीदवारों के सामने प्रत्याशी खड़े किए, उससे भी नीतीश नाराज हुए।

महाराष्ट्र में शिवसेना कब जूनियर पार्टनर बन गई, उसे पता ही नहीं चला। यही गोवा में महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के साथ हुआ। मोदी सरकार में शिवसेना, जदयू, अकाली दल को एक से ज्यादा कैबिनेट-बर्थ तक नहीं दी गई थी। जबकि अटल-आडवाणी के दौर में भाजपा इन्हीं गठबंधन-सहयोगियों पर आश्रित थी। कांग्रेस के वर्चस्व वाले महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना की मदद के बिना पैर नहीं पसार सकती थी।

पंजाब में अकालियों से भाजपा को एक पहचान मिली थी। बिहार में जदयू जैसी सामाजिक-न्याय की राजनीति करने वाली पार्टी की मदद से ही भाजपा सवर्णों के अपने कोर वोटबैंक से आगे पैठ बना सकी थी। लेकिन बीते एक दशक में भाजपा ने विशेषकर हिंदी पट्‌टी के राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग की अगुवाई में एक बहुत ही भिन्न सामाजिक-गठबंधन निर्मित किया है, जिसके बाद उसे पुराने सहयोगियों की जरूरत नहीं रह गई थी।

मोदी-शाह की कद्दावर शख्सियत के आगे भी गठबंधन सहयोगी स्वयं को असहज महसूस करने लगे थे। इस परिप्रेक्ष्य में तो नीतीश का भाजपा से अलगाव अवश्यम्भावी ही था। क्योंकि नीतीश ही एनडीए के पहले ऐसे नेता थे, जिन्होंने 2013 में मोदी के नेतृत्व को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।

2017 में वे अपनी सीमाएं समझते हुए पुन: एनडीए में लौट जरूर आए, लेकिन वे कभी भी इसके साथ सहज नहीं हो सके थे। नीतीश जिस हालत में थे, वही स्थिति आज अनेक क्षेत्रीय नेताओं की है कि मोदी-शाह के वर्चस्व को स्वीकारें या अलग-थलग पड़ जाएं और खुद को ईडी के रडार पर ले आएं?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)