गौतम अदाणी से बहुत पहले धीरूभाई अम्बानी थे। रिलायंस इंडस्ट्रीज के संस्थापक पर ये कहकर निशाना साधा जाता था कि उन्होंने अपना साम्राज्य 1980 के दशक में कांग्रेस सरकार से निकटता के चलते स्थापित किया। रिलायंस-विरोधी आंदोलन की अगुवाई पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह कर रहे थे, जिनकी बड़े कारोबारी घरानों के प्रति अरुचि जगजाहिर थी।
1990 में जब वीपी बनाम धीरूभाई की तकरार जोरों पर थी, तब दक्षिणी मुम्बई के कांग्रेस सांसद मुरली देवड़ा ने धीरूभाई के लिए एक प्राइवेट डिनर आयोजित किया। देवड़ा ने उस अवसर पर माैजूद गणमान्यजनों से कहा, मुझे पता नहीं मेरी पार्टी इस बारे में कैसी प्रतिक्रिया करेगी, लेकिन मैं तो भले-बुरे समय में अपने दोस्त धीरूभाई का साथ देता रहूंगा।
कारण, एक जमाने में देवड़ा और अम्बानी साथ काम कर चुके थे और उनके आपसी सम्बंध पारस्परिक विश्वास पर आधारित थे। उदारीकरण से पहले के उस दौर में सूट-बूटधारी देवड़ा दूसरे राजनेताओं से बहुत अलग थे और कॉर्पोरेट-जगत को खुलकर अंगीकार करने में उन्हें कोई झिझक नहीं होती थी। जबकि तब भारतीय राजनीति पर समाजवादी रंग चढ़ा था और नेतागण खुद को कारोबारियों से अलग-थलग दिखाने का जतन करते थे। हालांकि तब भी चुनाव कॉर्पोरेट-फंडिंग से ही लड़े जाते थे।
इसकी तुलना आज के समय से करें, जिसमें सरकारें खुलकर कॉर्पोरेट घरानों से मेलजोल बढ़ाने का जतन करती दिखती हैं। एक भी ऐसा महीना नहीं जाता, जब देश के किसी राज्य में कोई चमक-दमक वाली इंवेस्टर्स समिट नहीं हो रही हो। लगता है जैसे मुख्यमंत्रियों में इस बात की होड़ लगी है कि कौन अपने राज्य को सबसे ज्यादा बिजनेस-फ्रेंडली दिखला सकता है।
इस बदलाव का श्रेय 1991 के आर्थिक उदारीकरण को दिया जा सकता है, जिसने न केवल भारत के बाजारों को दुनिया के लिए खोला, धन-सम्पदा के प्रति भारतीय सोच को भी बदला। अमीरों को बुरा समझने की प्रवृत्ति खत्म हुई और आकांक्षाओं से भरे उपभोक्तावादी मध्यवर्ग का उदय हुआ।
1991 के बाद अधिकतर राज्यों ने विकास के जिस मॉडल को अपनाया था, वह बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं के इर्द-गिर्द घूमता था। सरकारों को उम्मीद थी कि इससे निवेश, विकास और रोजगारों को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन सड़क, बंदरगाह, हवाई अड्डे, पॉवर प्लांट्स की बड़ी परियोजनाओं के लिए पैसा जुटाने में कम सम्पन्न राज्यों को कठिनाइयां आती थीं।
ऐसे में उन देशी धनकुबेरों की जरूरत महसूस हुई थी, जो जोखिम लेने से कतराते नहीं हैं और मेड इन इंडिया के ब्रांड को बढ़ावा देने के लिए बड़ी मात्रा में पैसा लगाने को तैयार हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में गौतम अदाणी की प्रासंगिकता स्थापित हुई। उन्होंने लाइसेंस-परमिट राज में कमोडिटी ट्रेडर के रूप में कारोबार शुरू किया था, लेकिन जल्द ही इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में दायरा बढ़ाते हुए बड़े सम्पदा-निर्माता बन गए।
वे भाग्यशाली थे कि वे सही समय पर सही जगह में उपस्थित थे। वे एक ऐसे राज्य (गुजरात) से थे, जो बिना किसी नैतिक संकोच के सम्पदा-निर्माण को महत्व देता है। भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के उदय से पूर्व ही अदाणी को उनकी व्यावसायिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के अवसर मिलने लगे थे। वास्तव में 1993 में कांग्रेसी मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल ने अदाणी को मुंद्रा में वह भूमि अलॉट की, जिस पर अदाणी ने अपने ग्रुप का फ्लैगशिप पोर्ट प्रोजेक्ट स्थापित किया।
यह सच है कि गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्रित्वकाल में बड़े कारोबार घरानों को संरक्षण दिया गया, क्योंकि मोदी स्वयं की छवि विकास-पुरुष की बनाना चाहते थे। वाइब्रेंट गुजरात समिट्स ने देश-विदेश के निवेशकों को आकृष्ट किया था। यही वह काल था, जब अदाणी गुजरात-मॉडल के शुभंकर बनकर उभरे। मोदी और अदाणी ने अपनी घनिष्ठता को छुपाने की कभी कोशिश नहीं की।
2014 के चुनाव अभियान में तो मोदी ने पूरे समय अदाणी के ही निजी विमान का इस्तेमाल किया था। सच कहें तो मोदी को आत्मनिर्भर भारत का नारा बुलंद करने के लिए अदाणी जैसे उद्योगपतियों की आवश्यकता है, वहीं अदाणी भी उनके संरक्षण में बड़े जोखिम उठा सके हैं।
इस पर चाहे जितने आक्षेप किए जाएं, उम्दा इंफ्रास्ट्रक्चर के जरिए राष्ट्र-निर्माण के तर्क से उनकी काट भी प्रस्तुत की जा सकती है। वास्तव में स्वयं कांग्रेस के मुख्यमंत्रिगण और क्षेत्रीय-क्षत्रप भी अदाणी-विरोध में ज्यादा उत्साहित नहीं दिखलाई देंगे।
अदाणी समूह पर लगाए जा रहे आरोपों के बाद सवाल है कि मुरली देवड़ा ने धीरूभाई का साथ देकर वर्षों पूर्व जो साहस दिखाया था, क्या प्रधानमंत्री भी चुनाव से पूर्व वैसा जोखिम उठा सकते हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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