भारतीय क्रिकेट में बीते 50 वर्षों में सुनील गावसकर से अधिक प्रभावशाली कोई आवाज नहीं रही है। यही कारण है कि जब वे भारतीय पिचों की शोचनीय दशा पर टिप्पणी करते हैं- जिनके चलते लगातार तीन टेस्ट मैच तीन दिन के भीतर समाप्त हो गए- तो आपको सुनने को विवश होना पड़ता है।
उन्होंने कहा विश्व टेस्ट चैम्पियनशिप के फाइनल तक पहुंचने के लिए भारत के पास इसके सिवा कोई विकल्प न था कि स्पिनरों को मदद देने वाली पिचें बनवाएं। गावसकर ने जो कहा, वह आज क्रिकेट ही नहीं, जीवन का भी मूलमंत्र बन चुका है कि चाहे जैसे हो कामयाबी पाओ। साध्य का महत्व है, साधन का नहीं।
इन टिप्पणियों का संदर्भ यह है कि भारतीय क्रिकेट स्वयं को इस खेल की एक महाशक्ति के रूप में देखने पर गर्व का अनुभव करता है। उसके खिलाड़ियों को दुनिया के सबसे बेहतरीन क्रिकेटर्स में से एक माना जाता है और वे ऑस्ट्रेलिया को लगातार दो बार उनके ही घर में टेस्ट शृंखला हरा चुके हैं।
कुछ साल पहले तक इसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। बेहतरीन बल्लेबाजों, गेंदबाजों और विश्वस्तरीय कोच से सजी इस टीम को ऐसी कौन-सी असुरक्षा की भावना सता रही थी, जो उसे घरेलू परिस्थितियों में शृंखला जीतने के लिए अपने अनुकूल पिचें बनाने को मजबूर होना पड़ा?
याद रखें कि तमाम हाइप के बावजूद भारतीय टीम ने 2013 के बाद से कोई आईसीसी ट्रॉफी नहीं जीती है और वह अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंटों में महत्वपूर्ण अवसरों पर अकसर नाकाम होती रही है। ऐसे में विश्व टेस्ट चैम्पियनशिप के फाइनल के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाना बीसीसीआई वहन नहीं कर सकती थी।
यही कारण था कि क्यूरेटर्स पर लगभग दबाव बनाया गया कि वे ऐसी पिचें बनाएं, जिन पर गेंद पहले ही दिन से घूमने लगे। इंदौर में हुए टेस्ट मैच को तो आईसीसी के मैच रेफरी ने पुअर रेटिंग दी है। हर हाल में सफलता का यह मंत्र अनैतिक है, क्योंकि यह समान अवसरों के सिद्धांत के विरुद्ध है। गेंद और बल्ले के बीच बराबरी का मुकाबला होना चाहिए। लेकिन आज जल्दी से जल्दी बीस विकेट लेकर टेस्ट जीतना ही जरूरी मान लिया गया है।
चुनावों के समय भी इसी तरह का नारा दोहराया जाता है कि जो जीता वो ही सिकंदर। यहां भी चुनाव जीतने वाले के द्वारा अपनाए गए तौर-तरीके मायने नहीं रखते, फिर चाहे वह हेट स्पीच या पैसों की ताकत से जीता गया हो या संस्थाओं का अनुचित दोहन करके।
आज विजेता का महिमामंडन करने की प्रवृत्ति विकसित हो चुकी है, जिसे तमाम नैतिक मानकों से मुक्त समझा जाता है। क्रिकेट में तो खैर राजनीति के तौर-तरीके नहीं चलते, लेकिन जब कौशल-आधारित एक खेल को अपने अनुकूल पिचों की मदद से एक लॉटरी में तब्दील कर दिया जाए तो इससे खेल की भावना का ही हनन होता है।
पिच-विवाद पर ‘वॉटअबाउटरी’ भी बहुत हो रही है, यानी अगर-मगर के तर्क देना। कहा जा रहा है कि जब हमें विदेशों में हरी और उछाल भरी पिचों पर खेलना पड़ता है, तब क्या? ये सच है कि विदेशी परिस्थितियां हमारे यहां से अलग होती हैं और इससे विदेशी टीमों को होम एडवांटेज मिलता है, लेकिन क्या इतने भर से जान-बूझकर अपने अनुरूप पिचें तैयार करने को न्यायोचित ठहराया जा सकता है?
यही कारण है कि जब इंदौर में एक बहुत ही खराब पिच पर भारत ऑस्ट्रेलिया से टेस्ट मैच हार गया तो इसमें एक काव्य-न्याय निहित था। जब आप घरेलू परिस्थितियों में अपने अपराजेय होने को लेकर इतने आश्वस्त हो जाते हैं, तब आप अप्रत्याशित घटनाओं की उम्मीद नहीं कर रहे होते हैं। इसमें भी जीवन के लिए एक जरूरी सबक निहित है कि कभी किसी चीज को हलके में मत लो।
पुनश्च : जब इंदौर में महज दो दिन और एक सत्र के खेल के बाद टेस्ट मैच समाप्त हो गया तो एक क्रिकेट वेबसाइट पर एक अर्थपूर्ण इंटरव्यू दिखाया गया। यह इंटरव्यू भारतीय टीम की जर्सी बेचने वाले एक स्ट्रीट वेंडर का था। उसने पांच दिन तक बेचने के लिए शर्ट खरीदी थीं, लेकिन उसे दो ही दिन के बाद दुकान बंद करना पड़ी। उसे जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई कौन करेगा? जब किसी भी कीमत पर जीतना ही मूलमंत्र बन जाए, तब इस तरह की चीजों की भला किसे परवाह होगी?
विश्वस्तरीय सितारों से सजी भारतीय क्रिकेट टीम को ऐसी कौन-सी असुरक्षा की भावना सता रही थी, जो उसे घरेलू परिस्थितियों में शृंखला जीतने के लिए अनुकूल पिचें बनाने को मजबूर होना पड़ा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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