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राजदीप सरदेसाई का कॉलम:आज राहुल नेता के बजाय किसी छात्र संगठन के उत्साही कार्यकर्ता अधिक लगते हैं

4 महीने पहले
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राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार - Dainik Bhaskar
राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार

बीते लगभग एक दशक से भाजपा की राजनीतिक-पटकथा एक सुविचारित नैरेटिव के इर्द-गिर्द घूम रही है- कामदार बनाम नामदार। इसके चलते प्रधानमंत्री को जमीन से जुड़े व्यक्ति की तरह प्रस्तुत किया जाता है और राहुल गांधी को लुटियंस दिल्ली के वंशवादी की तरह।

लेकिन जैसे-जैसे 2024 के चुनाव निकट आ रहे हैं, इस नैरेटिव के दोनों मुख्य किरदारों की भूमिकाएं बदलती हुई लग रही हैं : मोदी अब भारतीय सत्तातंत्र के प्रतीक बन चुके हैं, वहीं भारत जोड़ो यात्रा पर निकले राहुल ने तपस्वियों की भाव-भंगिमा ओढ़कर स्वयं को सत्तातंत्र को चुनौती देने वाले व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत कर दिया है।

2014 में मोदी आउटसाइडर थे। वे यथास्थिति को बदलकर अच्छे दिन लाने का वादा कर रहे थे। दूसरी तरफ राहुल को अपरिपक्व और परिवारवाद का लाभार्थी करार दिया जा रहा था। 2014 और 2019 के चुनाव परिणामों ने बताया कि वास्तव में मोदी और राहुल के बीच कोई मुकाबला ही नहीं था।

लेकिन यह 2023 है और अब मोदी आउटसाइडर नहीं हैं। केंद्र की सत्ता में एक दशक बिताने पर व्यक्ति-केंद्रित राजनीति में वीवीआईपी विशेषाधिकारों से स्वयं को बचाया नहीं जा सकता। कुछ साल पहले का वह वायरल वीडयो याद करें, जिसमें 7 लोककल्याण मार्ग के आलीशान गार्डन में प्रधानमंत्री मोरों को दाना खिला रहे थे, उस छवि में लगभग साम्राज्यवादी वैभव था। या नए संसद भवन के ऊपर अशोक चिह्न के सिंहों को अनावरित करने का दृश्य याद करें, जिसने उनकी गुजरात के शेर वाली छवि को लोकप्रिय कल्पना में पैठा दिया था।

हर महत्वपूर्ण सरकारी योजना और वैक्सीन सर्टिफिकेट पर भी आज प्रधानमंत्री की तस्वीर होती है। स्वयं को भारत के नम्बर वन नेता के रूप में स्थापित कर लेने के बाद अब मोदी विश्व-नेता के रूप में दुनिया में अपनी पहचान बढ़ाना चाहते हैं। भारत को जी-20 की अध्यक्षता मिलने को प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व से जोड़ा गया है।

गुजरात में अथक चुनाव-प्रचार करने से लेकर यूक्रेन में युद्ध समाप्त करने की अपील तक और अपने पहनावे के चयन में भी मोदी खुद को किसी खद्दरधारी नेता के बजाय एक आधुनिक कल्ट फिगर की तरह प्रस्तुत करते हैं, जिनके पास न केवल राज्यसत्ता है, बल्कि जनसमर्थन भी प्राप्त है।

मोदी के नपे-तुले परिधानों और तराशे हुए केश-विन्यास की तुलना खिचड़ी दाढ़ी वाले राहुल गांधी से करें, जो मशाल लिए सड़कों पर चल रहे हैं और भीड़ में से अनजाने लोगों का हाथ थामकर उन्हें गले लगा रहे हैं। वे नेता के बजाय किसी छात्र संगठन के उत्साही कार्यकर्ता अधिक मालूम होते हैं।

दिल्ली की हाड़ कंपा देने वाली सर्दियों में उनके द्वारा महज एक टी-शर्ट पहनना उनके उस नए अवतार का परिचायक है, जिसमें अब वे पहले की तरह विशेषाधिकृत नहीं रह गए हैं, न ही अब वे पप्पू कहला सकते हैं, बल्कि वे स्वयं की तलाश में कठोर यात्रा पर निकले किसी ऊर्जावान व्यक्ति जैसे लगने लगे हैं। कहां तो राहुल की यह कहकर आलोचना की जाती थी कि वे लोगों से अलग-थलग रहते हैं और कहां उनकी इस यात्रा ने उनकी एक ऐसे व्यक्ति की छवि प्रस्तुत की है, जो हर वर्ग के लोगों से मिलने-जुलने के लिए उत्सुक है।

अनौपचारिक क्षेत्र, छोटे-मंझोले उद्योग, अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी- राहुल हर उस वर्ग की आवाज उठा रहे हैं, जो भारत की विकास-यात्रा में पिछड़ गया-सा लगता है। आज उनकी छवि सत्ता के लिए भूखे नेता के बजाय वैकल्पिक राजनीति की तलाश कर रहे विचारक जैसी ज्यादा हो गई है।

वे समय-समय पर जीवन और धर्म के बारे में अमूर्त दार्शनिक विचार प्रस्तुत करते हैं, जिससे महत्वाकांक्षा के बजाय त्यागशीलता का अधिक संकेत मिलता है। यहां तक कि वे इंटरव्यू भी मुख्यधारा के मीडिया के बजाय यूट्यूबरों को दे रहे हैं और परिपाटी को तोड़कर एक नई छवि सामने रख रहे हैं।

उन्होंने अनेक प्रेसवार्ताएं ली हैं, जिनमें उनसे तात्कालिक प्रश्न पूछे गए हैं। उनका जवाब देने की कोशिश करके उन्होंने ईमानदारी व स्पष्टवादिता का परिचय दिया है। इसकी तुलना में प्रधानमंत्री ने एक दशक में एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है।

कामदार बनाम नामदार का नैरेटिव अब बदलकर विश्वनेता बनाम तपस्वी-यात्री का हो गया है। जैसा कि हाल ही में एक कांग्रेस नेता ने मुझसे कहा, हमें पता नहीं राहुल की यात्राओं से पार्टी को ज्यादा वोट मिलेंगे या नहीं, लेकिन अब उन्होंने कार्यकर्ताओं का सम्मान जरूर हासिल कर लिया है।

नरेंद्र मोदी अब सत्तातंत्र के प्रतीक बन चुके हैं, वहीं भारत जोड़ो यात्रा पर निकले राहुल गांधी ने तपस्वियों की भाव-भंगिमा ओढ़कर स्वयं को सत्तातंत्र को चुनौती देने वाले व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत कर दिया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)