भारत की नेशनल एजुकेशन पॉलिसी 2020 यानी एनईपी में अमेरिकी सामाजिक सिद्धांतों और नीतियों का अत्यधिक अनुकरण किया गया है। अमेरिकी स्कॉलरशिप और पाठ्यक्रम को आंख मूंदकर भारत में लागू करने से उत्पन्न होने वाली समस्याएं गम्भीर हैं। भारत की अगली पीढ़ी को गुमराह किया जा रहा है।
अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत भी, उसकी उत्कृष्ट अकादमिक संस्थाओं में विकसित सामाजिक विज्ञान के कुछेक हालिया सिद्धांतों के उपयोग को लेकर संकट उत्पन्न हुआ है। परंतु वहां न केवल कॉलेजों में, बल्कि प्राथमिक, माध्यमिक और हाई स्कूल शिक्षा स्तर पर भी इसका विरोध हो रहा है।
इसमें सबसे आगे जेंडर सम्बंधी विचारधारा है, जो शिक्षा के क्षेत्र में लैंगिक अध्ययनों का परिणाम है। अनेक अमेरिकी माता-पिता बहुत छोटे बच्चों के अपने जेंडर के बारे में प्रश्न करने पर आपत्ति व्यक्त करते हैं। कई रूढ़िवादी माता-पिता छोटे बच्चों की इस ‘ग्रूमिंग’ का इस आधार पर विरोध करते हैं कि यह उन्हें यौन सम्बंध बनाने की ओर प्रेरित करेगा और भ्रमित करेगा।
अचानक नौजवानों का एक बड़ा प्रतिशत यह महसूस करने लगा है कि लैंगिक रूप से वे ‘गलत’ शरीरों में हैं। गुस्साए माता-पिता बच्चों में लैंगिक हताशायुक्त बेचैनी में तीव्र वृद्धि देख रहे हैं और विशेषज्ञों के पास भी इससे निपटने का रास्ता नहीं है।
सोशल मीडिया की भी इसमें बड़ी भूमिका है, विशेषकर परेशान युवा महिलाओं के संबंध में जो स्वयं को सार्वजनिक रूप से ‘ट्रांस’ घोषित करती हैं। पश्चिम में रूढ़िवादी व्यक्ति यह महसूस करते हैं कि यह रुझान अप्राकृतिक है और इसे सामाजिक रूप से निर्मित किया जा रहा है।
इस प्रकार का शैक्षिक शोध सामाजिक न्याय की विचारधारा से जीव-विज्ञान का उल्लंघन करने का प्रयास करता है। यहां यह तर्क दिया जा रहा है कि जेंडर को पुराने ढांचों- जिनका निर्माण उत्पीड़कों द्वारा किया गया- के दवाब में सामाजिक रूप से रचा गया है और पीड़ितों की मुक्ति के लिए उन ढांचों को तोड़ना आवश्यक है।
इसी कारण से जेंडर को ‘अस्थिर’ सामाजिक संरचना कहा जा रहा है। इसके उन्मूलन के लिए, पश्चिम में सोशल इंजीनियरिंग कार्यकर्ता प्यूबर्टी ब्लॉकर्स के लिए अत्यधिक दबाव बना रहे हैं और बच्चों के जननांगों को विकृत करने की शल्यक्रियाओं का समर्थन कर रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान पश्चिमी शैक्षणिक समूह के इस नए तथ्य-वर्णन से प्रभावित हो रहा है कि जेंडर जैविक नहीं बल्कि पूर्णतः एक ‘सामाजिक संरचना’ है।
भारत में भी इसकी गूंज सुनाई पड़ रही है। प्रत्येक नवीनतम अमेरिकी सनक की नकल करने का हमारे यहां फैशन जाे बन गया है। भारत की नई शिक्षा नीति ने बड़े गर्व से पश्चिमी लिबरल आर्ट्स शिक्षा के लिए द्वार खोल दिए हैं। भारतीय विश्वविद्यालय विद्वानों के बजाय कार्यकर्ताओं से निर्मित जेंडर स्टडीज विभाग के माध्यम से लैंगिक अध्ययनों संबंधी होड़ में शामिल हो गए हैं।
अधिकतर धनाढ्य भारतीय माता-पिता- जो लिबरल आर्ट्स की शिक्षा के लिए महंगे ट्यूशन शुल्क का भुगतान करते हैं- अमेरिकी शिक्षा के निहितार्थों को नहीं समझते हैं। जेंडर संबंधी अस्थिरता के प्रवक्ता अपने सक्रियतावाद को भारत-विरोधी राजनीति के साथ मिला रहे हैं।
भारत ने हमेशा विविधता को अपनाया है, जिसमें ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए सम्मान भी शामिल है। भारतीय शिक्षाविदों के लिए बेहतर होगा कि वे पश्चिम का अंधानुकरण करने के बजाय भारतीय प्रतिमानों की जांच-परख करें और उन्हें मानविकी के भारत के अपने प्रारूप में सम्मिलित करें। विविधतापूर्ण जनसंख्या पर लापरवाह तरीके से विदेश के सामाजिक विज्ञानों को लागू किए जाने से ऐसे अप्रत्याशित और अस्थिरतापूर्ण परिणाम आ सकते हैं, जिनके लिए भारत एकदम तैयार नहीं है।
नई शिक्षा नीति ने पश्चिमी लिबरल आर्ट्स शिक्षा के लिए द्वार खोल दिए हैं। हमारे विश्वविद्यालय विद्वानों के बजाय कार्यकर्ताओं से निर्मित जेंडर स्टडीज विभाग के माध्यम से लैंगिक अध्ययनों की होड़ में जुट रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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