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रश्मि बंसल का कॉलम:जन्म से ही बछड़े को मां से अलग कर दिया जाता है। ताकि सारा दूध हमारे कब्जे में हो

4 महीने पहले
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रश्मि बंसल लेखिका और स्पीकर - Dainik Bhaskar
रश्मि बंसल लेखिका और स्पीकर

मुझे याद नहीं कि बचपन में कभी पनीर खाया हो। मतलब रोज की जिंदगी के मेनु में। हां, साल में एक बार हम मम्मी-पापा की शादी की सालगिरह के दिन दिल्ली दरबार में डिनर करने जाते थे। शायद तब। या कभी घर पर दूध फट गया तो उसका इलाज- पनीर बना लो। लेकिन घर का पनीर भी कोई पनीर होता है?

पनीर होता है मोटे-ताजे क्यूब्स वाला, जो टमाटर की ग्रैवी में अंगड़ाई ले रहा हो। जिसने पहनी हो पोशाक मखनवाला, हेयरस्टाइल लबाबदार और मेकअप पसंदा। जिसे खाते ही दिल हो जाए ठंडा। टिक्का हो या कटलेट या पकौड़ा, इसने सबको है जोड़ा। पराठे में भी घुस गया नायक, आलू बोले मैं किस लायक।

पिज्जा हो या पास्ता, मेन कोर्स हो या नाश्ता। पास में थे पनीर चिली, ‘आई एम वेजिटेरियन, सिली!’ असल में यही पनीर की पॉपुलैरिटी का राज है कि उसने शाकाहारियों का दिल जीत लिया है। जहां चिकन का हो इस्तेमाल, वहां पनीर डाल दो- बन गया वेज। लेकिन क्या ये सोलह आने सच है? आप खुद इसका फैसला करें...

एक थी मुनिया गाय, रोज वो चारा खाए। उसने बछड़े को जनम दिया, मां होने का करम किया। प्रकृति के नियम अनुसार दूध उत्पन्न हुआ। ये दूध बछड़े की जान है, लेकिन इसका कोई मान है? डेयरी का चल रहा है धंधा, इसके पीछे सच है गंदा। गाय का दूध है पैसे का स्रोत, चाहे हो उस बछड़े की मौत।

जी हां, ये है कहानी हमारे दूध की, पनीर की, चीज़ की। इन्हें पाने के लिए हम मूक प्राणियों पर अत्याचार कर रहे हैं। विदेश में हॉर्मोनल इंजेक्शन के द्वारा गाय को बार-बार गर्भवती किया जाता है। क्योंकि दूध तो तभी होता है, जब गाय मां बनती है। और यही कॉमर्शियल सोच हमारे देश में भी आ गई है।

कहने को गाय हमारी माता है। एक वक्त था, जब हम सचमुच इसे मानते भी थे। हर घर में एक गाय थी, उस परिवार का हिस्सा। दूध पर पहला हक बछड़े का था, उसके बाद हमारा। अब कहानी विपरीत है। जन्म से ही बछड़े को मां से अलग कर दिया जाता है। ताकि सारा का सारा दूध हमारे कब्जे में हो।

शायद आपको विश्वास नहीं हो रहा... क्या डेयरी इंडस्ट्री इतनी क्रूर है? तो और सुनिए। अगर गाय ने मेल बछड़ा जन्मा, उसे सीधा कसाईखाना भिजवा दो। अगर फीमेल है तो उसे पालो, ताकि वो दूध दे सके। और हां, जब गाय बूढ़ी हो जाए, दूध ना दे पाए, तो उसे बेच दो। आगे उसका मीट बिके या चमड़े का पर्स, हमें कोई लेना-देना नहीं।

यूट्यूब पर इस विषय पर एक फिल्म आप जरूर देखें- मां का दूध। इसे बनाया है डॉ. हर्ष ने। उन्होंने पढ़ाई की थी मेडिकल की, लेकिन अब वो जाग्रति की मुहिम में लगे हुए हैं। दो घंटे की इस डॉक्यूमेंट्री को बनाने में उन्होंने हजारों किलोमीटर का सफर किया। सारा मटैरियल इकट्‌ठा करने में करीब ढाई साल लगे।

इसे देखना आसान नहीं, शायद मेरी तरह आप भी आधे घंटे बाद बंद कर दोगे। जब दूध हमारे पास पैकेट में आता है तो हमें लगता है अन्य आइटम्स की तरह इसे भी मनुष्यों ने फैक्टरी में बनाया है। लेकिन यह हमारा भ्रम है। क्योंकि तबेलों के हालात और गाय-भैंसों का शोषण देखने के बाद उस दूध का स्वाद फीका पड़ जाता है।

इसी वजह से आज दुनिया में बहुत सारे लोग वीगन बन गए हैं। यानी कि किसी भी प्राणी का दूध या दूध से बने हुए पदार्थ का सेवन वो नहीं करते। आप कहेंगे, ऐसा कैसे? चाय में क्या डलेगा? पिज्जा चीज़ बिना बनेगा? दही बिना भाई कैसा दिन? मिठाई क्या है मावा बिन? हाय रसगुल्ला, हाय खीर। और पनीर, मेरा प्यारा पनीर...

मुश्किल तो है मगर नामुमकिन नहीं। मैंने भी एक साल से वीगन डाइट अपनाई है। स्वास्थ्य में भी काफी फर्क पड़ा है। दूध आप बादाम, काजू, ओट्स और सोया का पी सकते हो। दूध के बिना जी सकते हो। फल-सब्जी से भरा है संसार, उनसे बनती हैं रेसिपी हजार। वैसे कई लोग दूध डाइजेस्ट भी नहीं कर पाते, फिर भी उसी के बने व्यंजन खाते हैं।

खैर, फैसला आपका है। लेकिन मामला गम्भीर है। या तो हम गाय को माता का दर्जा दें, या उनके शोषण का कर्जा लें। चाय सिप करते हुए, जरा सोचें।

जब दूध हमारे पास पैकेट में आता है तो हमें लगता है अन्य आइटम्स की तरह इसे भी मनुष्यों ने फैक्टरी में बनाया है। लेकिन यह हमारा भ्रम है। गाय-भैंसों का शोषण देखने के बाद उस दूध का स्वाद फीका पड़ जाता है।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)