तमिलनाडु के एक छोटे शहर में पले-बड़े प्रेम गणपति के सपने बड़े थे। किसी तरह दसवीं पास की और चल पड़े बम्बई, अपना फ्यूचर बनाने। मगर वहां पहुंचे, तो जिस श्रीमान ने नौकरी का वादा किया था, वो प्लेटफॉर्म से ही चम्पत हो गए। अब इस नए शहर में कोई पहचान नहीं, कोई काम नहीं, पर वो लौटने को तैयार नहीं।
बम्बई में अरसे से उडुपी होटल का चलन है, जहां इडली-डोसा लोग चाव से खाते हैं। ऐसी एक होटल के मालिक ने इस नौजवान को दयाभाव से नौकरी दी। मगर कौन-सी? बर्तन धोने की। कोई और होता तो अपनी किस्मत को कोसता। मगर प्रेम गणपति खुश- कम से कम रात में सोने का ठिकाना तो मिला।
कुछ दिन बाद मालिक से कहा, दोपहर में दो घंटे कुछ काम नहीं है। तो क्या मैं पास के ऑफिस में चाय देने का काम शुरू करूं? ठीक है भाई, कर लो। एक केतली और कटिंग चाय के गिलास लेकर श्रीमान निकल पड़े। कुछ ही दिन में ऐसे कस्टमर बना लिए जो इंतजार करते थे कि अपना चायवाला अब आएगा।
अब चाय-प्रेमी जो होते हैं, सब की अपनी-अपनी पसंद। किसी को चीनी कम, किसी को दूध कम। प्रेम गणपति हर किसी की पसंद नोट कर, उनके मन की चाय पिलाता। और वो भी एक हंसमुख चेहरे के साथ। कुछ महीने बाद एक कस्टमर ने प्रपोज किया, एक चाय की टपरी खोलते हैं। पैसे मैं लगाऊंगा, काम तुम करोगे, अपनी पार्टनरशिप अच्छी चलेगी।
चाय का बिजनेस अच्छा चल रहा था मगर प्रेम ने सोचा, क्यूं ना कुछ खाने का भी इंतजाम हो। तो तमिलनाडु से होते हुए उन्हें सूझा डोसा। कुछ ही दिन में उनकी टपरी चाय से ज्यादा डोसे के लिए फेमस हो गई। लोग बड़ी-बड़ी गाड़ियों में आते थे, स्वादिष्ट खाने के लिए। अन्य टपरियों से अलग, प्रेम गणपति सफाई का भी खास ध्यान रखते थे।
बर्तन धोने वाला अब महीने के एक-डेढ़ लाख कमा रहा था। बम्बई में टपरी चल गई तो कोई बड़ी बात नहीं। तो बस, अब तो एंजॉय करना है ना? मगर इनकी सोच कुछ अलग। एक दिन टपरी के पास ही मैकडॉनल्ड्स खुला। प्रेम गणपति के मन में सवाल उठा- यहां मि. मैकडॉनल्ड्स तो हैं नहीं, तो उनके नाम से ये सब कैसे चलता है?
क्यूं ना मैं भी कुछ ऐसा करूं? दिल और दिमाग लगाकर, मदद मांग कर, प्रेम गणपति ने अपना बिजनेस खूब बढ़ाया। आज डोसा-प्लाजा के नाम से उनके पच्चीस-तीस फ्रैंचाइजी आउटलेट चलते हैं, पूरे देश में। और कुछ विदेश में भी। पर मैं आपको ये कहानी बिजनेस की सीख के लिए नहीं, किसी और मकसद से सुना रही हूं।
अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक नेपोलियन हिल ने कहा है कि जिस चीज की आप कल्पना कर सकते हो, और विश्वास कर सकते हो, वही सच सिद्ध होता है। प्रेम गणपति ना पढ़े-लिखे थे, ना उनके पास पैसा था, पर उनके मन में जब मैकडॉनल्ड्स की तरह बनने का सपना आया तो उन्होंने अपने आपको धिक्कारा नहीं, कि हे गुरुदेव, फालतू खयाल छोड़। शकल देखी है अपनी? अपनी औकात में रह।
ऐसे ही क्रूर शब्दों से हम अपने सपने रोज कुचलते हैं। हर छोटी-बड़ी बात में अपने आपको जरूरत से ज्यादा कोसते हैं। ये हमारे अंदर की आवाज हमें रुलाती है, चाबुक चलाती है। जबकि हमें जरूरत है प्यार की, सहानुभूति की। उसे हम दूसरों को देते हैं, अपने आपको नहीं।
दो हफ्ते पहले मैंने आपको कहा था- रोज शीशे के सामने खड़े होकर, आंखों में आंखें डालकर, अपने आप से कहिए, मैं खुद से प्यार करता हूं, खुद को स्वीकार करता हूं। मैं जानती हूं जब आपने यह कहा तो अंदर से उस बंदर की चीख उठी होगी। उसने आपको हताश करने की कोशिश भी की होगी, मगर हार न मानिए।
अगले दो हफ्तों के लिए प्रयोग
कलाई पर रबर बैंड बांधिए। जब भी बंदर की आवाज मन में गूंजे, रबर बैंड खींचिए ताकि पिंग महसूस हो। उसी वक्त बंदर को कहें- चल, भाग। अब मैं तेरी नहीं सुनता। नोट कीजिए दिन में कितनी बार पिंग करना पड़ा। समय के साथ फ्रीक्वेंस कम होगी। आपके अंदर आज भी एक बच्चा है, जो सीधा है सच्चा है। उसके आंसू पोंछो, गले लगाओ। उसे अपना दोस्त बनाओ।
हम अपने सपने रोज कुचलते हैं। हर छोटी-बड़ी बात में अपने आपको जरूरत से ज्यादा कोसते हैं। हमारे अंदर की आवाज हमें रुलाती है, चाबुक चलाती है। जबकि हमें जरूरत है प्यार की, सहानुभूति की।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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