न्यू पेंशन स्कीम (एनपीएस) और ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस) पर बहस फिर छिड़ गई है। राजस्थान में कांग्रेस सरकार ने इसे लागू करने का वादा किया। उसके बाद पंजाब, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ इत्यादि में भी दलों ने इसे अपने घोषणा पत्रों और नीतियों में शामिल किया है।
पेंशन स्कीम केवल औपचारिक क्षेत्र के कर्मचारियों को प्रभावित करती है। कुल रोजगार में औपचारिक क्षेत्र का हिस्सा 10% से कम है। पक्की नौकरी वाले कुछ सरकारी मुलाजिम (प्रोफेसर, आइएएस, जज) सबसे ज्यादा वेतन पाने वालों में हैं। सातवें वेतन आयोग में न्यूनतम सरकारी वेतन 18,000 रु. प्रतिमाह था। वर्ल्ड इनइक्वैलिटी डेटाबेस के अनुसार यह देश में मीडियन आय है, यानी 50% लोग इससे कम कमाते हैं।
एनपीएस में डिफाइंड कॉन्ट्रिब्यूशन है यानी हर महीने मुलाजिम और उनके नियोक्ता वेतन का कुछ हिस्सा (10 से 15%) पेंशन फंड में डाल देते हैं। इस फंड में जमा राशि को विभिन्न जगह निवेश (म्युचुअल फंड इत्यादि) किया जाता है। सेवानिवृत्ति पर स्टॉक मार्केट की स्थिति के अनुसार हर महीने इन निवेशों पर कमाई राशि प्राप्त होगी।
एनपीएस में दिक्कतें हैं। अमेरिका में इस तरह की ही पेंशन व्यवस्था है। 2007-08 के वित्तीय संकट के दौरान हजारों टीचरों की पेंशन डूब गई थी। एनपीएस की बड़ी खामी भी जोखिम है। इसका उपाय है निवेश को सुरक्षित रखना और उनसे होने वाली कमाई को जोखिम से बचाना। इसके लिए उन पर नियंत्रण रखने वालों की निगरानी और निवेश के निर्णय में पारदर्शिता लाना जरूरी है।
नियामक संस्थाओं को पारदर्शी बनाना व उनका नियंत्रण कहने में आसान है, पर अमेरिका का तजुर्बा बताता है इसे करना मुश्किल है। ओपीएस में डिफाइंड बेनेफिट थे, यानी जब आप सेवानिवृत्त होते हैं तब आपको अपने आखिरी पद पर नियुक्त तनख्वाह का 50% पेंशन के रूप में प्राप्त होगा। साथ ही, इसमें महंगाई से बचाने के उपाय हैं। इसके लिए पैसा कहां से आएगा? पेंशन का दायित्व राजस्व से प्राप्त राशि से पूरा किया जाएगा। अनुमान के अनुसार राज्य स्तर पर पेंशनधारियों पर खर्च करों से प्राप्त राजस्व का एक चौथाई है।
क्या यह न्यायसंगत व्यवस्था है? प्रति माह कुछ हजार से लाखों में वेतन प्राप्त करने वाले मुलाजिम की पेंशन का खर्च देश की जनता से प्राप्त प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों से आता है, जिसमें गरीब से गरीब का भी योगदान है। इस नजरिए से देखें तो ओपीएस पेंशन प्राप्त लोग गरीबों द्वारा चुकाए कर पर भी निर्भर हैं।
क्या यह उचित है कि देश में सबसे सम्पन्न की पेंशन का खर्च सबसे गरीब वर्ग से जमा की गई राशि से निकाला जाए? दूसरा सवाल यह कि यदि हम एनपीएस से ओपीएस की ओर जाते हैं तो आज सरकार की बचत होगी, क्योंकि पेंशन फंड में नियोक्ता के रूप में जो योगदान सरकार की तरफ से जा रहा है, वह बच जाएगा। लेकिन जब कर्मचारी रिटायर होंगे तब उन्हें पेंशन तो देना होगी।
तीसरा, दीर्घावधि में चूंकि एनपीएस की तुलना में ओपीएस का बोझ सरकार पर ज्यादा है, प्रति कर्मचारी आर्थिक बोझ बढ़ेगा और हर अतिरिक्त नियुक्ति पर सरकार ज्यादा सोचेगी। भारत में पहले से ही सरकारी कर्मचारी-जनसंख्या का अनुपात (यानी प्रति हजार लोगों पर कितने डॉक्टर, नर्स, टीचर, पुलिसकर्मी इत्यादि हैं), अंतरराष्ट्रीय मानदंड की तुलना में कम हैं।
आर्थिक बोझ बढ़ने से इनकी नियुक्तियों पर असर होगा। चौथा, बजट में कमजोर तबके के लोगों के लिए राजस्व की कमी रहती है। सरकारी खर्च में सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं का हिस्सा बहुत कम है; स्वास्थ्य पर जीडीपी का केवल 1% खर्च होता है।
यदि सरकार पर ओपीएस पेंशन की जिम्मेदारी न होती तो स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा जैसे अन्य कार्यों के लिए सरकार के पास राजस्व रहता। एक समय ऊंचे सरकारी पे-ब्रैकेट वालों की तनख्वाह खास नहीं थी, लेकिन सातवें वेतन आयोग के बाद स्थिति बदल गई। अब सरकारी मुलाजिमों के लिए योगदान करना मुश्किल नहींं होना चाहिए।
क्या ओपीएस और एनपीएस का मिला-जुला उपाय हो सकता है? हां, जैसे कि पेंशन स्कीम में एनपीएस की तरह सुनिश्चित योगदान हो और साथ ही ओपीएस की तरह पेंशनधारी को सुनिश्चित लाभ भी मिलें।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं।)
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