रुचिर शर्मा का कॉलम:चीन को अपना रुख बदलने पर मजबूर होना ही पड़ा

2 महीने पहले
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रुचिर शर्मा, ग्लोबल इन्वेस्टर बेस्ट सेलिंग राइटर - Dainik Bhaskar
रुचिर शर्मा, ग्लोबल इन्वेस्टर बेस्ट सेलिंग राइटर

बीते वर्ष अक्टूबर के अंत में जब शी जिनपिंग ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी पर अपनी पकड़ को और मजबूत कर लिया था, तब दुनिया इस घटना के साथ सहज नहीं थी। जिनपिंग चीन को माओत्से तुंग के जमाने में ले जाने को तत्पर थे। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी पर कठोर विचारधारा का नियंत्रण सबके लिए चिंता की ही बात होती।

ऐसे में शायद ही किसी ने उम्मीद की होगी कि चीन के महाबली सत्ताधीश अचानक बदले-बदले-से नजर आने लगेंगे, जबकि हुआ यही है। चंद सप्ताह के भीतर ही जिनपिंग की सरकार ने कोविड-19, बड़ी टेक कम्पनियों, सम्पत्ति बाजार आदि पर से अपने नियंत्रण को ढीला छोड़ दिया है। उसने यूक्रेन से लड़ रहे रूस को समर्थन में कटौती के संकेत दिए और अमेरिका से तनाव कम करने की कोशिशें की हैं।

जिनपिंग का यह मुलायम रवैया कइयों को अप्रत्याशित लगा है। तो क्या अब जिनपिंग दुनिया के दबावों के सामने झुक रहे हैं और चीन की इकोनॉमी की बिगड़ती दशा ने उन्हें अपना रुख बदलने को मजबूर किया है? हमें भूलना नहीं चाहिए कि चीन की इकोनॉमी में सुस्ती कैसे आई थी। इसका मुख्य कारण जिनपिंग की कोविड-नीति, टेक कम्पनियों पर अंकुश और प्रॉपर्टी बस्ट था।

वित्त-वर्ष की अंतिम तिमाही में चीन की विकास दर 3 प्रतिशत पर आ सकती है, और यह अधिकृत डाटा है यानी वास्तविकता और संगीन होगी। 1970 के दशक के बाद यह पहला अवसर है, जब चीन की विकास दर इतनी धीमी पड़ी है। अगर इकोनॉमी खराब प्रदर्शन करेगी तो इससे सर्वसत्तावादी राज्यसत्ता को खतरा तो महसूस होगा ही। क्योंकि जिनपिंग ने वादा किया था कि वे दुनिया में चीन का दबदबा कायम करेंगे।

जब चीन में जीरो कोविड नीति के विरोध में प्रदर्शन हो रहे थे तो कुछ आंदोलनकारियों ने यह कहने की हिम्मत जुटा ली थी कि जिनपिंग इस्तीफा दो। जिनपिंग की सरकार के अधिकारीगण तो पहले ही उनसे इस नीति पर पुनर्विचार करने की मांग कर रहे थे। लेकिन किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि वे अपना रुख बदलेंगे।

सच्चाई यह है कि जो भी नेता दस साल से अधिक सत्ता में रह जाते हैं, वे बहुत कम लचीले रह पाते हैं। उनके आग्रह पुख्ता होते चले जाते हैं। इसका असर उनकी आर्थिक और लोकतांत्रिक नीतियों पर पड़ता है। क्यूबा के फिदेल कास्त्रो से लेकर चीन के माओ तक अनेक तानाशाह अतीत में अनेक दुर्घटनाओं का सृजन करते रहे हैं।

सिंगापुर के ली कुआन यिऊ और चीन के देंग शिआओ पिंग इनमें अपवाद हैं, जिन्होंने माओवाद को त्यागकर व्यावहारिकता को अपनाया था। जिनपिंग भी अब उम्रदराज हो रहे उन नेताओं की श्रेणी में शामिल हो गए हैं, जो बदलने को तैयार हैं- कम से कम संकट की घड़ी में तो निश्चय ही। यही कारण था कि बीते साल हुई पांच वर्षीय कांग्रेस के बाद से इकोनॉमी को मजबूत बनाने के लिए जिनपिंग की सरकार ने गैर-माओवादी रुख अपनाया।

डेवलपरों से कर्ज लेने के लिए तीन रेड लाइंस की नीति को त्याग दिया गया और टेक कम्पनियों के विरुद्ध नीति में परिशोधन लाने की बात कही गई। अनेक वर्षों तक राज्यसत्ता के कड़े अंकुश के बाद अब चीन के द्वारा निजी क्षेत्र से सहयोग लेने की बात कही जा रही है। लेकिन विडम्बना यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद चीन 5 प्रतिशत की विकास दर अर्जित नहीं कर सकेगा।

चीन की आबादी में बढ़ोतरी थम गई है तो साथ ही उत्पादकता भी घटी है। घटते कामगारों के चलते चीन की सम्भावित विकास दर ढाई प्रतिशत से आगे नहीं जा सकती है। अब जब लॉकडाउन में ढील दी गई है तो चीनी ग्राहकों द्वारा किए गए खर्चों से तात्कालिक रूप से थोड़ा बूस्ट जरूर आ सकता है। वैश्विक निवेशकों ने हमेशा की तरह रुख बदल लिया है।

वे अब जिनपिंग के नए स्वरूप को सराह रहे हैं। नवम्बर में चीन का स्टॉक मार्केट लड़खड़ा रहा था। लेकिन अब वे पोस्ट-पैंडेमिक री-ओपनिंग से उम्मीदें लगाए हुए हैं और चीनी स्टॉकों में पैसा लगा रहे हैं। इसके बावजूद चीन की नीतियों पर प्रश्नवाचक चिह्न कायम हैं।

जिनपिंग ने व्यावहारिकता का तकाजा करते हुए रवैए को जरूर बदला है, लेकिन इससे उनकी स्थिरता पर सवाल उठते हैं। जैसे ही इकोनॉमी रिकवरी के मोड में आएगी, वे फिर से नियंत्रणवादी रवैया अख्तियार कर सकते हैं। उम्रदराज नेताओं की यह भी एक और आदत है!

शायद ही किसी ने उम्मीद की होगी कि चीन के महाबली सत्ताधीश अचानक बदले-बदले-से नजर आने लगेंगे। जबकि जिनपिंग ने कोविड-19, टेक कम्पनियों, सम्पत्ति बाजार से नियंत्रण को ढीला छोड़ दिया है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)