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रुचिर शर्मा का कॉलम:राज्यसत्ता का हर नया रेस्क्यू आने वाले संकट के लिए मुश्किल हालात ही पैदा करता है

2 महीने पहले
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रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर, बेस्टसेलिंग राइटर - Dainik Bhaskar
रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर, बेस्टसेलिंग राइटर

आज बैंक-रन की स्थिति बढ़ती जा रही है। यह तब होता है, जब बड़ी संख्या में ग्राहक बैंकों से पैसा निकालने लगते हैं। ऐसे में यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि सरकार के बचाव-प्रयासों पर सवाल उठाने वालों को लिक्विडैशनलिस्ट कहकर उलाहना दिया जाएगा। ठीक उनकी तरह, जिन्होंने 1929 के महामंदी के बाद हर्बर्ट हूवर को सलाह दी थी कि व्यवसायों को नष्ट होने दिया जाए।

आज लिक्विडैशनलिस्ट होने का आरोप फासिस्ट होने के इल्जाम से कम संगीन नहीं है। ठीक है कि अब सरकारों के लिए राजनीतिक रूप से यह सम्भव नहीं रह गया है कि वे रेस्क्यू के प्रयास करती हुई न दिखें, लेकिन यह समस्या भी उन्हीं की बनाई हुई है।

ईज़ी-मनी (यानी कम ब्याज दरों के चलते कर्ज को बढ़ावा देना) के पिछले दशकों ने इतने बड़े बाजारों को रच दिया है और सब आपस में एक-दूसरे से इतने जुड़े हैं कि एक मंझोले आकार की बैंक का दिवालिया होना भी दुनिया में वैश्विक संकट पैदा कर देता है।

ईज़ी-मनी का युग कम ब्याज दरों के लिए ही नहीं जाना गया था। उसका एक आयाम रेस्क्यू के लिए राज्यसत्ता का ऑटोमैटिक मोड में रहना भी था। सरकार हमेशा ही इकोनॉमी, बैंकों, कम्पनियों, उद्योगों, वित्तीय बाजारों यहां तक कि संकटग्रस्त विदेशी सरकारों को भी रेस्क्यू कराने की मुद्रा में रहती थी।

हाल ही में जो बैंक-रन की स्थिति निर्मित हुई है, वह बताती है कि ईज़ी-मनी का दौर अभी खत्म नहीं हुआ है। मुद्रास्फीति लौट आई है, जिससे केंद्रीय बैंक अंकुश लगाने लगे हैं, लेकिन सरकारें बचाव की मुद्रा से बाज नहीं आ रहीं। यह जितना बढ़ेगा, उतना ही पूंजी का प्रवाह बाधित होगा।

1929 से पहले अमेरिकी सरकार मिनिमलिस्ट हुआ करती थी, लेकिन आज वह रेस्क्यू-संस्कृति की अगुवाई कर रही है। वह एक मैक्सिमलिस्ट अति पर चली गई है। वर्तमान में पेश आए संकटों की तुलना 19वीं सदी के बैंक-रन से की जा रही है, लेकिन उन दिनों में सरकारें बचाव कार्यों के लिए खुद को जोतती नहीं थीं।

केंद्रीकृत सत्ता के प्रति अमेरिका में शुरू से ही एक अरुचि रही है। इसके चलते आज वहां सीमित शक्तियों वाली केंद्र सरकार और नगण्य केंद्रीय बैंक की स्थिति निर्मित हो गई है। वित्तीय प्रणाली के अभाव में विश्वास व्यक्तिगत स्तर पर किया जाता था, संस्थागत स्तर पर नहीं। अमेरिकी गृहयुद्ध से पहले निजी बैंकों ने अपनी मुद्राएं जारी की थीं। जब ग्राहकों का विश्वास डिगा तो डिपॉजिटर्स में भगदड़ मच गई थी।

औद्योगिक क्रांति का एक अहम आयाम यह था कि सरकारें चीजों में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करती थीं। नतीजतन वे अधिक प्रोडक्टिव होती थीं। यह प्रवृत्ति 1960 और 1970 के दशक तक देखी गई थी कि स्टेट-रेस्क्यू से बचा जाना चाहिए, फिर चाहे निवेदक कोई बड़ी बैंक हो या बड़ी कॉर्पोरेशन या न्यूयॉर्क सिटी।

1980 के दशक में रेस्क्यू-संस्कृति बढ़ी, जब यह मान लिया गया कि कॉन्टिनेंटल इलिनोइस बैंक इतनी बड़ी है कि वह कभी विफल हो ही नहीं सकती। जब वह दिवालिया हुई तो उसके डिपॉजिटर्स को असीमित संरक्षण प्रदान किया गया। ठीक वैसे ही, जैसे हाल ही में एसवीबी के डिपॉजिटर्स को दिया जा रहा है।

वास्तव में हाल के बैंक-रन की तुलना 1980 के दशक के सेविंग्स एंड लोन क्राइसिस से की जा सकती है। करदाताओं के 130 अरब डॉलर से इस संकट का निपटारा किया गया। 1990 के दशक के अंत में एक हेज फंड की सहायता करने के लिए प्रिवेंटिव-रेस्क्यू किया गया और उसके फेर में प्रणालीगत वित्तीय संकट के खतरे को ताक पर रख दिया गया।

लेकिन 2008 और 2020 में जिस पैमाने पर रेस्क्यू किए गए, उनकी तुलना में वो सब कुछ भी नहीं थे। फेडरल रिजर्व और ट्रेजरी ने रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और अनेक ट्रिलियन डॉलर्स की मदद हजारों कम्पनियों को कर्ज या बेलआउट के लिए दी गई है। इकोनॉमी को दुरुस्त करने और उसमें नई ऊर्जा फूंकने के बजाय यह रेस्क्यू-कल्चर वैश्विक वित्तीय प्रणाली को ही अस्थिर किए दे रही है। साथ ही यह प्रवृत्ति पूंजीवाद में घटते भरोसे की भी परिचायक है।

सरकारी हस्तक्षेप से आर्थिक संकट में फौरी राहत जरूर मिल जाती है, लेकिन उससे दीर्घकालीन उत्पादकता प्रभावित होती है और यह आर्थिक विकास और जीवनशैली के मानकों के लिए अच्छी बात नहीं है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)