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रुचिर शर्मा का कॉलम:ऑर्थोडॉक्स इकोनॉमी के क्षेत्र में थाईलैंड की सफलता दुनिया के लिए केस-स्टडी बन चुकी है

3 महीने पहले
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रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर - Dainik Bhaskar
रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर

फरवरी 1998 में, यानी 25 साल पहले मैं बैंकॉक में एशियाई वित्तीय संकट के ‘ग्राउंड जीरो’ पर था। थाई बात (थाईलैंड की मुद्रा) में गिरावट आने के कारण दक्षिण-पूर्व एशिया की अनेक मुद्राओं और बाजारों की हालत खस्ता हो गई थी और लोग सड़कों पर उतरकर आंदोलन करने लगे थे।

यह स्थिति पूरी दुनिया में न फैल जाए, इसके लिए वैश्विक नेतागण एकत्र होकर प्रयास कर रहे थे, जबकि थाईलैंड और उसके पड़ोसी मुल्क हताशा में डूबे हुए थे। थाई इकोनॉमी 20 प्रतिशत सिकुड़ गई थी, स्टॉक्स में 60 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट आ गई थी और थाई बात डॉलर के मुकाबले अपनी आधी से ज्यादा वैल्यू गंवा बैठी थी। बैंकॉक में चीजों की कीमतें आश्चर्यजनक रूप से घट गईं। मैं थाई स्टॉक खरीदने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाया, लेकिन अनेक शॉपिंग बैग्स और दो गोल्फ सेट्स के साथ जरूर लौटा था।

अब वो सब इतिहास की बात है। लेकिन उस घटना का उपसंहार दिलचस्प है। 1998 के बाद थाईलैंड तो दुनिया के राडार से हट गया लेकिन उसकी मुद्रा तब से अत्यंत लचीली बनकर उभरी है। आज उसने विकासशील दुनिया की किसी भी अन्य मुद्रा की तुलना में डॉलर के मुकाबले अपनी वैल्यू की सबसे अच्छी तरह से रक्षा की है और विकसित देशों में भी उसका प्रदर्शन स्विस फ्रांक के बाद सबसे अच्छा रहा है।

इसके विपरीत इंडोनेशिया- जहां 1998 के संकट के बाद तानाशाह सुहार्तो का तख्तापलट हो गया था- की मुद्रा आज डॉलर के मुकाबले 15 हजार तक पहुंच गई है, जबकि 1998 में यह डॉलर के मुकाबले 2400 ही थी। इसकी तुलना में थाई मुद्रा आज डॉलर के मुकाबले 33 ही है, जो कि 1998 से पहले के आंकड़े 26 से ज्यादा दूर नहीं है। इसके बावजूद आज थाईलैंड महंगा नहीं लगता। एक विदेशी निवेशक फुकेट में 200 डॉलर से कम में पांच सितारा होटल पा सकता है, वहीं 30 डॉलर में फाइन डिनर मिल जाता है।

थाईलैंड वैश्विक रूप से भी प्रतिस्पर्धात्मक बना हुआ है। यानी जो कभी वित्तीय संकट का केंद्र था, वह आज स्थिरता का पर्याय बन चुका है और वह दूसरी उभरती हुई इकोनॉमी के लिए भी एक सबक है। 1998 के बाद से अनेक उभरते हुए बाजारों ने वित्तीय रूप से परम्परागत रुख अख्तियार कर लिया है।

विशेषकर वे, जिन पर दक्षिण एशिया में संकट की कड़ी मार पड़ी थी। इंडोनेशियाई बैंक बदहाली के शिकार थे, जबकि आज वे सुप्रबंधन की मिसाल हैं। फिलीपींस और मलेशिया ने घाटे की लगाम कसने में सफलता पाई है। लेकिन थाईलैंड से ज्यादा ऑर्थोडॉक्स कोई और देश नहीं हुआ है।

वर्ष 2000 तक दक्षिण-पूर्व एशिया रिकवरी के मोड में आ गया था। इकोनॉमी में परम्परागत रुख अख्तियार करने का एक फायदा यह होता है कि आप मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखते हैं। थाई मुद्रास्फीति आज केवल 2 प्रतिशत से अधिक है, जो अमेरिका के बराबर है। एक उभरती हुई इकोनॉमी के लिए यह बड़ी कामयाबी है।

1998 के बाद से केवल चीन, ताईवान और सऊदी अरब में ही इससे कम मुद्रास्फीति रही है। थाईलैंड को नियमित विदेशी आय से लाभ मिला है। वह उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सबसे खुला देश है। वहां ट्रेड जीडीपी का 110 प्रतिशत हो गया है। थाईलैंड ने अपनी प्रतिष्ठा टूरिज्म और मैन्युफेक्चरिंग के आधार पर निर्मित की है, जहां से उसकी जीडीपी का चौथाई हिस्सा आता है।

1998 के संकट के दौरान मैंने बैंकॉक के बाहर नए फोरलेन हाईवे की सैर की थी और वहां मुझे सब तरफ फैक्टरियां निर्मित होती नजर आई थीं। उसके बाद से उसका मैन्युफेक्चरिंग-बेस निरंतर बढ़ा है। आज वो लोग कारों से लेकर इलेक्ट्रिक वीकल पार्ट्स तक सबकुछ बना रहे हैं और विदेशी निवेश निमंत्रित कर रहे हैं।

इसी दौरान फुकेट और कोह समुई के इर्द-गिर्द टूरिस्ट हॉटस्पॉट अब मेडिकल और वेलनेस सेवाओं के गढ़ के रूप में भी विकसित हो चुके हैं। आज थाईलैंड की जीडीपी में टूरिज्म का योगदान 12 प्रतिशत हो गया है, जो कि विदेशी मुद्रा का बड़ा स्रोत है।

उसकी प्रतिव्यक्ति आय 8000 डॉलर हो गई है, जो कि 1998 के संकट के समय 3000 डॉलर थी। सबसे बड़ी बात यह कि थाईलैंड ने यह सब राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद हासिल किया है। बीते 25 सालों में ही वहां चार नए संविधान बनाए जा चुके हैं।

1998 में जो वित्तीय संकट का केंद्र था, वह आज स्थिरता का पर्याय बन चुका है और वह दूसरी उभरती हुई इकोनॉमी के लिए भी एक सबक है। इकोनॉमी में परम्परागत रुख अख्तियार करने का यह फायदा है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)