विश्वमंच पर चीन का उदय शायद इस सदी की सबसे ज्यादा दोहराई जाने वाली कहानी रही है। चीन ने आर्थिक के साथ ही सैन्य ताकत भी तेजी से बढ़ाई है। इसके बावजूद आज चीन एक वित्तीय सुपरपॉवर के रूप में कहीं नहीं जा रहा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। 1920 के दशक में डॉलर के वैश्विक-मुद्रा बनने से पहले ही अमेरिका एक आर्थिक और वित्तीय ताकत बन चुका था। इससे पूर्व ब्रिटेन से लेकर पुर्तगाल तक अनेक साम्राज्यों की भी यही कहानी रही थी।
चीन इकलौता ऐसा है, जो तेजी से आर्थिक ताकत बनकर तो उभरा, पर वित्तीय-ताकत के रूप में उसका कोई वजूद नहीं है। ऐसा करके वह उससे की गई अपेक्षाओं को भी झुठला रहा है। दो दशक पूर्व, जब चीन ने विश्व-व्यापार शुरू किया था तो लग रहा था कि वह दुनिया में अपना आर्थिक और वित्तीय वर्चस्व स्थापित करने की राह पर है। 2010 के आसपास बीजिंग अपनी वित्तीय महत्वाकांक्षाओं को स्वर देने लगा था, जिसमें रेनमिनबी को एक वैश्विक-मुद्रा के रूप में स्थापित करना भी शामिल था।
इसके बाद उसने तीव्र विकास किया। पर अब वो ठहर गया है। 2000 के बाद से दुनिया की जीडीपी में चीन का हिस्सा 4% से बढ़कर 18% हो गया है और विश्व-व्यापार में उसकी सहभागिता भी चार गुना बढ़कर 15 प्रतिशत हो गई है। दुनिया की कोई और इकोनॉमी इतनी तेजी से नहीं बढ़ी है। इसके बावजूद आज चीन का स्टॉक मार्केट दुनिया के सबसे कमजोर परफॉर्मर्स में से एक है।
वास्तव में चीन के उदय ने सामूहिक कल्पनाशीलता को ऐसे ग्रस लिया है कि रेनमिनबी के ग्लोबल सेंट्रल बैंक रिजर्व में तीन प्रतिशत के हिस्से को भी अच्छी प्रगति माना जाता है, जबकि यह कनाडा या ऑस्ट्रेलिया जैसी उससे कहीं छोटी अर्थव्यवस्थाओं से भी कम है। विश्लेषकों ने चीन से जो उम्मीदें लगाई थीं, उसकी तुलना में तो यह निश्चय ही बहुत पीछे है।
इसका कारण है विश्वास की कमी। चीन की दखलंदाजी करने वाली सरकार से विदेशी दूर रहना चाहते हैं, ये तो सच है, लेकिन समस्या यह है कि खुद चीन के लोग अपने वित्तीय तंत्र पर भरोसा नहीं करते। बीते दशक में विकास को बढ़ावा देने के लिए चीन ने इतने नए नोट छापे हैं कि मुद्रा की आपूर्ति अर्थव्यवस्था और बाजार पर हावी हो गई है। अवसर मिलते ही यह पूंजी बाहर चली जाएगी।
सात साल पहले जब बीजिंग पूंजी के आउटफ्लो की समस्या से जूझ रहा था तो सरकार ने इस पर रोक लगाने के लिए प्रतिबंध लगा दिए थे। अभी तक उन प्रतिबंधों को हटाया नहीं गया है। इसके बजाय, चीन वित्तीय रूप से अपने में ही सिमटकर रह गया है। 2015 के बाद से अंतरराष्ट्रीय बैंक ट्रांसेक्शंस के लिए निर्मित स्विफ्ट नेटवर्क से रेनमिनबी के माध्यम से भुगतान में बीस फीसदी की गिरावट आई है, जबकि यह पहले ही तीन प्रतिशत से कम के स्तर पर था।
कैपिटल अकाउंट ओपननेस के इंडेक्स में चीन दुनिया के 165 देशों में 106वें क्रम पर है। मेडागास्कर और मोलदोवा जैसे देश भी इसी क्रम पर हैं। जहां चीनी निवेशकों पर विदेश में निवेश की पाबंदी है, वहीं विदेशी चीनी हुकूमत की बाजार पर नियंत्रण करने की कोशिशों से डरते हैं। यही कारण है कि दूसरे देशों की तरह चीन के स्टॉक आर्थिक विकास के साथ चढ़ते या गिरते नहीं हैं। दुनिया में चीन के बाजारों को लेकर जो संशय की भावना है, उसने रेनमिनबी के आकर्षण को सीमित कर दिया है।
आज दुनिया के आधे देश डॉलर को विदेशी मुद्रा के रूप में इस्तेमाल करते हैं, इनमें से कोई भी चीन की मुद्रा का उपयोग नहीं करता। दुनिया के फॉरेन एक्सचेंज ट्रांसेक्शंस का 90% हिस्सा अमेरिकी डॉलर है, रेनमिनबी 5% भी नहीं है। 1980 के दशक में जब जापान अपने चरम पर था, तब वह आर्थिक ताकत के रूप में भी उभर रहा था और वित्तीय ताकत के रूप में भी। जापानी येन और उसका स्टॉक मार्केट दोनों उस ताकत को प्रदर्शित करते थे। टोकियो वैश्विक वित्तीय केंद्र बन गया था।
यही बात आज चीन की मुद्रा, स्टॉक और उसके किसी शहर के बारे में नहीं कही जा सकती है। चीन की सरकार ने देखा है कि कैसे अमेरिका ने डॉलर की ताकत का इस्तेमाल करते हुए रूस पर पाबंदियां लगाईं। चीन भी वैसी ही ताकत चाहता है। पर पहले वह कैपिटल कंट्रोल उठाने का आत्मविश्वास तो दिखाए और अपनी मुद्रा को पूर्णतया कनवर्टिबल बनाए। इसके बिना वह महाशक्ति नहीं बन सकेगा।
चीन की सरकार ने देखा है कि कैसे अमेरिका ने डॉलर की ताकत का इस्तेमाल करते हुए रूस पर पाबंदियां लगाईं। चीन भी वैसी ही ताकत चाहता है। पर पहले वह अपनी मुद्रा को पूर्णतया कनवर्टिबल तो बनाए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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