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रुचिर शर्मा का कॉलम:ऐसा कोई विचार नहीं, जिसे ज्यादा पैसा तबाह नहीं कर सकता, जैसे प्राइवेट इनवेस्टिंग

5 महीने पहले
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रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर - Dainik Bhaskar
रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर

प्राइवेट इनवेस्टिंग का वैश्विक बाजार अब 10 ट्रिलियन डॉलर का हो गया है। पर इसे ऐसा अच्छा विचार ही कहेंगे जो जरूरत से ज्यादा बड़ा होकर अब गुब्बारा बन गया है, जो कभी भी फूट सकता है। प्राइवेट इनवेस्टिंग के प्रति जरूरत से ज्यादा लगाव 2000 के दशक के आरम्भ में शुरू हुआ था। इसकी बुनियाद में थी येल यूनिवर्सिटी एंडोमेंट फंड की सफलता, जिसकी अगुआई डेविड स्वेंसन कर रहे थे।

स्वेंसन ने प्राइवेट इनवेस्टमेंट्स को इसलिए अपनाया था ताकि स्टॉक और बॉन्ड मार्केट से अलग कुछ कर सकें और लॉन्ग-रन में रिटर्न्स को स्थायित्व दे सकें। यहां पर लॉन्ग-रन से उनका आशय दसेक साल नहीं, बल्कि अनेक दशक था। उन्हें ऐसे प्राइवेट मैनेजरों की तलाश थी, जो तुरत-फुरत में लाभ कमाने के बजाय कोई कम्पनी खड़ी करना चाहते थे।

स्वेंसन येल के लिए अनेक पीढ़ियों तक न खपने वाली सम्पत्ति जनरेट करना चाहते थे, पर साथ ही वे मनी-मैनेजर्स को रोजमर्रा के दबावों से भी मुक्त करना चाहते थे और आधुनिक पूंजीवाद को तात्कालिक का जो चिंतन ग्रसे हुए है, उससे उसे आगे ले जाना चाहते थे। लेकिन जो बात एक अच्छे विचार से शुरू हुई थी, वो जल्द ही वास्तविकता से मुंह फेरने का माध्यम बन गई।

अच्छे रिटर्न के वादों के बदले प्राइवेट फंड्स क्लाइंट के पैसों को दस साल तक ताले में बंद करके रखने लगे। वे अपने क्लाइंट्स को पब्लिक फंड्स से भी कम मर्तबा रिपोर्ट देने लगे, बहुत हुआ तो तीन महीने में एक बार। टाइट-मनी के नए दौर में प्राइवेट चैनल्स ने मनी-मैनेजर्स को अपने क्लाइंट्स को हो रहे नुकसान को उनसे छुपाने का अवसर दे दिया।

क्लाइंट्स भी रोजमर्रा की उथलपुथल का तनाव झेलना नहीं चाहते थे। तो यह चुप्पियों की साजिश बन गई, जिसकी बुनियाद में उम्मीद थी। आर्थिक सर्वसम्मति यह है कि फेडरल रिजर्व का अंकुश जल्द ही एक मंदी को न्योता दे सकता है, लेकिन वह ज्यादा समय नहीं चलने वाली, न ही उसका असर बड़ा होगा।

यह शुतुरमुर्गी फितरत हाल की मंदियों में अनेक प्राइवेट फंड्स के लिए कारगर साबित हुई है। पब्लिक मार्केट 2007 में अपने पीक पर पहुंच गए थे, जिसके बाद बाय-आउट फंड्स ने 2009 में रिकवरी शुरू होने तक अपनी रिपोर्ट्स को छुपाए रखा। इसका यह मतलब था कि उन्हें कभी भी अपने नुकसानों को पूरी तरह से उजागर नहीं करना पड़ा।

हकीकत से मुंह छिपाने से यह भ्रम पैदा होता है कि प्राइवेट इनवेस्टमेंट्स में कम जोखिम है। इससे उनमें और पैसा आता है और जितना पैसा आता है, उतना जोखिम बढ़ता है। प्राइवेट मार्केट इस दौर में ज्यादा कमजोर है।

2020 की शुरुआत में जब कोविड-19 फैला तो प्राइवेट इक्विटी मैनेजर्स ने मान लिया कि क्लाइंट्स के मैदान से हटने से पहले ही मार्केट रिकवर कर लेगा- जो कि हुआ भी। तब फेड बचाव के लिए आ गया। लेकिन अब जब मुद्रास्फीति विकट हो चुकी है, ईजी-मनी का दौर खत्म हो गया है। ईजी-मनी यानी आसानी से मिलने वाला कर्ज। अगली मंदी न तो अल्पकालीन होगी, न ही कमजोर।

ऐसा कोई अच्छा विचार नहीं, जिसे जरूरत से ज्यादा पैसा तबाह नहीं कर सकता। प्राइवेट इनवेस्टिंग का भी यही हाल है। स्वेंसन और उनके सहयोगियों ने प्राइवेट मार्केट्स में कम दरों पर खरीदकर पब्लिक मार्केट्स में ऊंची दरों पर बेचा था, लेकिन इसके उलट प्राइवेट मैनेजर नए फंड्स की आमद से उत्साहित होकर ऊंची दरों पर खरीदने लगे और यह उम्मीद करने लगे कि और कीमतें मिलेंगी।

इस फेर में वे कर्ज में दब गए। नतीजा यह है कि आज प्राइवेट इक्विटी फर्म के स्वामित्व वाली किसी औसत कम्पनी पर आय से पांच गुना ज्यादा कर्ज है। 2000 के बाद से प्राइवेट मार्केट्स द्वारा प्रबंधित एसेट्स 11 गुना बढ़ गए हैं। यह स्टॉक मार्केट्स की तुलना में चार गुना तेज गति है।

हकीकत से मुंह छिपाने से यह भ्रम पैदा होता है कि प्राइवेट इनवेस्टमेंट्स में कम जोखिम है। इससे उनमें और पैसा आता है और जितना पैसा आता है, उतना जोखिम बढ़ता है। हकीकत का खुलासा तब होता है, जब बाजार में सुस्ती लम्बी खिंच जाती है और प्राइवेट मार्केट्स को डाउन-मार्केट के नुकसानों को उजागर करना पड़ता है। इससे लगने वाला सदमा निवेशकों को तितर-बितर कर सकता है।

जहां कुछ प्राइवेट मैनेजर्स कम्पनियों के निर्माण के लिए दीर्घकालीन पूंजी देते रहेंगे, वहीं अनेक ऐसे भी हैं जो उन वित्तीय-इंजीनियरों के रूप में एक्सपोज़ हो जाएंगे, जिन्होंने ईजी-मनी की कच्ची बुनियाद पर कॅरियर बनाना चाहा था। याद रखें टाइट-मनी के दौर में छुपने की कोई जगह नहीं है। कर्जों पर रिटर्न-आधारित प्राइवेट मार्केट आज पब्लिक मार्केट्स की तुलना में ज्यादा कमजोर साबित होंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)