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रुचिर शर्मा का कॉलम:तीन प्रश्न सबसे जरूरी हैं- दुनिया में अगली मंदी कब आएगी? वह कितने समय रहेगी? रेस्क्यू के प्रयास कितने उदारतापूर्ण रहने वाले हैं?

4 महीने पहले
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रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर - Dainik Bhaskar
रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर

बीते आधा दशक में जब से सरकारें और केंद्रीय बैंक पहले से अधिक एकजुट होकर आर्थिक विकास को नियंत्रित करने लगे हैं तो इससे मंदी की घटनाएं भी कम हुई हैं। मंदी आती भी है तो उनकी अवधि और तीव्रता कम होती है।

आर्थिक संकटों का असर इतना कम हो गया है कि अधिकतर लोग अब कल्पना भी नहीं कर सकते कि कष्टकारी दौर कैसा होता होगा। लेकिन अब दुनिया की इकोनॉमी धीरे-धीरे उस कालखंड में प्रवेश कर रही है, जैसा हमने बीते दशकों में नहीं देखा था।

आज लोग सरकारों को अपनी उस रक्षक की तरह देखते हैं, जो मंदी की स्थिति में उनका बचाव करेंगी। हमारी पीढ़ी के लोगों के दिमाग में यह विश्वास पैठ-सा गया है। 1980 के बाद अमेरिका की इकोनॉमी ने केवल 10 प्रतिशत समय ही मंदी के दौर में बिताया है, जबकि 1945 में दूसरे विश्व युद्ध के समापन से लेकर 1980 तक यह लगभग 20 प्रतिशत था।

वहीं 1870 से 1945 के बीच तो यह 40 प्रतिशत से भी अधिक था। इसका एक मुख्य कारण सरकार के बचाव-कदम हैं। अमेरिका, ईयू, जापान और यूके में बाजार को दिए गए साझा प्रोत्साहन- जिनमें सरकारी व्ययों के साथ ही केंद्रीय बैंक के सम्पत्ति क्रय शामिल हैं- 2020 तक बढ़कर जीडीपी के 35 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। आपको पता है 1980 में यह आंकड़ा क्या था? मात्र 1 प्रतिशत। 2001 तक यह 3 प्रतिशत तक पहुंच पाया था। 2008 में 12 प्रतिशत तक। आज यह उससे लगभग तीन गुना हो गया है।

ये सच है कि 2020 की मंदी बड़ी तीव्र थी, लेकिन वह इतिहास की सबसे अल्पकालिक भी थी। वो महज दो महीनों में समाप्त हो गई। महामारी के दौरान सरकारों के राहत पैकेज इतनी तेजी से आए और वे इतने विशालकाय थे कि लोगों को- विशेषकर घर से काम कर रहे व्हाइट-कॉलर कर्मचारियों को ऐसा लगा जैसे मंदी कभी आई ही नहीं थी। उनकी आमदनी और क्रेडिट स्कोर बढ़ गए। बढ़ते स्टॉक और बॉन्ड बाजारों के चलते उनकी सम्पत्ति आकाश छूने लगी। पेशेवरों को लगने लगा कि अगर यही मंदी होती है तो इसमें बुरा क्या है?

कुछ विश्लेषक अब कह रहे हैं कि दुनिया की इकोनॉमी एक सॉफ्ट लैंडिंग की ओर अग्रसर हो सकती है, जिसमें उसे महामंदी का सामना न करना पड़े। लेकिन हाल ही के सर्वसम्मत-सर्वेक्षणों में अर्थशास्त्रियों ने इतनी आशा नहीं जताई है।

हालांकि वे यह उम्मीद जरूर जता रहे हैं कि हमारा सामना दूसरे विश्व युद्ध के बाद की सबसे कमजोर मंदी से होगा, जो छह महीने से कम समय रहेगी। फिर फेडरल रिजर्व बचाव करने मैदान में आ जाएगा। यह सर्वसम्मति तीन बिंदुओं पर गलत साबित हो सकती है और वे ही सबसे जरूरी हैं- एक, अगली मंदी कब आएगी? दो, वह कितने समय रहेगी? और तीन, रेस्क्यू के प्रयास कितने उदारतापूर्ण रहने वाले हैं?

वर्ष 2020 में सरकारों ने इकोनॉमी में इतना सारा पैसा लगा दिया कि दो साल बीतने के बावजूद उपभोक्तागण उन पर आलथी-पालथी जमाकर बैठे हैं। अकेले अमेरिका में डेढ़ ट्रिलियन डॉलर इंजेक्ट किए गए थे। अमेरिकी और यूरोपियन कारोबारियों के द्वारा ज्यादा निवेश नहीं किया गया और सरकारें अपना खजाना लुटाती रहीं।

इसके चलते अगला डाउनटर्न अपेक्षित समय से बाद में आ सकता है। यह विचार एक नवीनतम अमेरिकी जीडीपी डाटा में व्यक्त किया गया है, जिसने बताया है कि इकोनॉमी सहनशील बनी हुई है। लेकिन जैसे ही यह साल खत्म होते-होते महामारी के लिए दिए गए प्रोत्साहन चुक जाएंगे तो अगला डाउनटर्न शुरू हुआ और आप यह नहीं मान सकते कि यह जल्द बीत जाएगा।

यहां प्रश्न है मुद्रास्फीति का। अब यह उतनी ही तेजी से अपने पैर पीछे खींच रही है, जितनी तेजी से यह बीते साल ऊपर चढ़ी थी। कारण, सप्लाई चेन्स सामान्य स्थिति में आ रही हैं और लॉकडाउन खत्म होने के बाद सरकारी-प्रोत्साहन से प्रेरित होकर की गई ‘रिवेंज-स्पेंडिंग्स’ समाप्त हो रही हैं। फिर भी मुद्रास्फीति के महामारी-पूर्व के स्तर तक लौटने की अपेक्षा नहीं है।

कोविड का सबसे दूरगामी प्रभाव शायद काम और वेतन पर पड़ा है। आठ में से एक व्यक्ति का आज कहना है कि महामारी-पूर्व की गतिविधियों की ओर लौटने की उनकी कोई योजना नहीं है, जिसमें काम भी शामिल है। हर आयुवर्ग के लोगों के काम के घंटे कम हुए हैं, साथ ही काम के प्रति उनका रुख भी बदला है। सोशल मीडिया क्वाइट-क्विटिंग और एक्टिंग योर वेज को बढ़ावा दे रहा है, जिसका अर्थ है- उतना ही करें, जितने का आपको वेतन दिया जा रहा है। ज्यादा काम करने की कोई जरूरत नहीं है।

दूसरी तरफ, दुनिया में दूसरी तरह के बदलाव आ रहे हैं : जन्मदर अनेक वर्षों से गिर रही है, लेकिन अब कामकाजी आबादी में तेजी से कमी होने लगी है। दुनिया के देश अपने में सिमट रहे हैं। इस बदलती हुई जनसांख्यिकी और समाप्त होते वैश्वीकरण के दबावों से एक न्यू नॉर्मल निर्मित हो रहा है, जिसमें मुद्रास्फीति 2 के बजाय 4 प्रतिशत पर जाकर स्थिर हो रही है।

ऐसे में केंद्रीय बैंकों के लिए आगामी मंदी का सामना करने के लिए ब्याज दरों में कटौती और कठिन हो जाएगी। ऊंची दरों का अर्थ है कि सरकारें सुस्त चाल से चल रही इकोनॉमी को प्रोत्साहन देने के लिए अगर कर्ज लेकर खर्च करेंगी तो ग्लोबल बॉन्ड मार्केट्स में नुकसान झेलने का खतरा उठाएंगी, जो कि पहले ही फ्री स्पेंडिंग के प्रति असहिष्णु हो गए हैं। शायद अगली मंदी को आने में थोड़ा समय लगे, लेकिन उसका आकार जरूर असामान्य होगा। लगता नहीं कि दुनिया इस आने वाले मुश्किल समय के लिए तैयार है।

काम के प्रति बदल रहा है रुझान
कोविड का सबसे दूरगामी असर काम पर पड़ा है। आठ में से एक व्यक्ति का आज कहना है कि महामारी-पूर्व की गतिविधियों में लौटने की उनकी योजना नहीं है, जिसमें काम भी शामिल है। हर आयुवर्ग के लोगों के काम के घंटे कम हुए हैं। सोशल मीडिया क्वाइट-क्विटिंग को बढ़ावा दे रहा है, यानी- उतना ही करें, जितने का वेतन दिया जा रहा है। ज्यादा काम करने की जरूरत नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)