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संजय कुमार का कॉलम:उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों में हुए चुनावों से तो कांग्रेस के उत्थान का कोई प्रमाण नहीं मिलता है

16 दिन पहले
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संजय कुमार प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार - Dainik Bhaskar
संजय कुमार प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों- मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड में हुए चुनावों के नतीजों से जो पैटर्न उभरकर सामने आए हैं, वे ऊपर से समान दिखते हैं, किंतु उनमें कुछ अंतर भी हैं। तीनों ही राज्यों ने सत्तारूढ़ गठबंधनों के प्रदर्शन के प्रति अपनी सहमति जताई है।

त्रिपुरा में भाजपा और पीपुल्स फ्रंट यानी आईपीएफटी ने सत्ता में वापसी की। अलबत्ता उसे पहले जितना बहुमत नहीं मिला और वोट-शेयर भी दस प्रतिशत घटा। नगालैंड में नेशनलिस्ट डेमाक्रैटिक प्रोग्रेसिव एलायंस यानी एनडीपीपी ने भाजपा के साथ गठबंधन करते हुए 50% से अधिक वोटों के साथ सत्ता कायम रखी। मेघालय में अपेक्षानुसार त्रिशंकु जनादेश मिला, लेकिन सत्तारूढ़ नेशनल पीपुल्स पार्टी यानी एनपीपी 60 में से 26 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। उसे 31.2% वोट मिले। यह आंकड़ा बहुमत के करीब था।

इन परिणामों का सबसे बड़ा संदेश क्या है? सबसे पहला तो यही कि भाजपा का अपने जनाधार को पूर्वोत्तर में फैलाने का जो मिशन था और जिसके लिए वह खासा परिश्रम कर रही थी, वह कारगर साबित हुआ है। यह सच है कि त्रिपुरा में भाजपा का वोट-शेयर और सीटों की संख्या घटे हैं, लेकिन इसके बावजूद पांच साल पहले लेफ्ट को सत्ता से बेदखल करने के बाद उसने इस बार भी अपनी जीत का सिलसिला कायम रखा, यह अहम है।

नागालैंड में भाजपा एक बड़ी पार्टी नहीं है, लेकिन गठबंधन सहयोगी एनडीपीपी के साथ उसने राज्य में 12 सीटें जीतकर और 18.8% वोट पाकर अच्छा प्रदर्शन किया है। पिछले बार की तुलना में इस बार वह नगालैंड के सत्तारूढ़ गठबंधन में अधिक प्रभाव के साथ मौजूद रहेगी।

मेघालय में भाजपा पिछली बार की तरह दो ही सीटें जीत सकी, लेकिन उसका वोट शेयर बढ़कर 9.3% हो गया है। यह गौरतलब है कि मेघालय में भाजपा सत्ता में सहभागिता करेगी, क्योंकि वह एनपीपी के साथ नई सरकार का हिस्सा बनने को तैयार हो गई है।

दूसरी बात यह है कि भाजपा भले ही भारतीय राजनीति में सबसे बड़ी ताकत हो, लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों के महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती है, क्योंकि वे देश की सामाजिक और राजनीतिक विविधता का परिचय देते हैं। तीनों राज्यों के परिणाम बताते हैं कि वहां पर क्षेत्रीय पार्टियां प्रासंगिक बनी हुई हैं।

नागालैंड में भाजपा एनडीपीपी की गठबंधन सहयोगी होने के कारण ही 12 सीटें जीत सकी है। वहां शेष 48 सीटें क्षेत्रीय दलों ने ही जीती हैं। एनडीपीपी ने 25, एनसीपी ने 7, एनपीपी ने 5 सीटें जीतने में सफलता पाई है। मेघालय में कांग्रेस ने पांच सीटें जीतीं और 13.1% वोट हासिल किए। जबकि भाजपा ने दो सीटें जीतीं और 9.3% वोट पाए।

शेष 53 सीटें क्षेत्रीय दलों ने जीती हैं, जिनमें एनपीपी ने 31.4% वोटों के साथ 26 सीटें जीतने में कामयाबी पाई। त्रिपुरा में भाजपा अपने दम पर बहुमत पाने में सफल रही, पर वहां पर नई क्षेत्रीय ताकत तिप्रा मोथा को श्रेय देना होगा, जो पहली बार चुनाव लड़ रही थी और इसके बावजूद 19.6% वोटों के साथ 13 सीटें जीतने में सफल रही। यह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है। ये परिणाम बताते हैं कि चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा कायम है।

तीसरी बात, इन चुनावों से कांग्रेस के उत्थान का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। त्रिपुरा में भले ही उसने पिछली बार से बेहतर प्रदर्शन किया हो, लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि उसने इसी के लिए तो लेफ्ट के साथ गठजोड़ किया था। शेष दो राज्यों में उसका प्रदर्शन उल्लेख करने योग्य नहीं है।

नागालैंड में तो वह एक भी सीट नहीं जीत सकी। मेघालय में वह कभी सत्तारूढ़ पार्टी थी, पर वहां 5 सीटें ही जीत सकी। त्रिपुरा में भी कभी उसकी सरकार थी। लेकिन इसके बावजूद इन तीनों राज्यों के चुनाव परिणामों को आगामी आम चुनावों के लिए एक संकेत नहीं माना जाना चाहिए।

अतीत में यह बात अनेक बार प्रमाणित हो चुकी है कि मतदाता राज्यों के चुनाव के लिए अलग तरह से वोट देते हैं और केंद्र के चुनावों के लिए भिन्न तरह से। उत्तर-पूर्व के चुनाव परिणामों का बड़ा संदेश क्या है? यह कि भाजपा का अपने जनाधार को पूर्वोत्तर में फैलाने का जो मिशन था और जिसके लिए वह खासा परिश्रम कर रही थी, वह कारगर साबित हो रहा है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)