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शेखर गुप्ता का कॉलम:रूस अगर 1962 की तरह तटस्थ भी रहा तो गनीमत मानिएगा

16 दिन पहले
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शेखर गुप्ता एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ - Dainik Bhaskar
शेखर गुप्ता एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’

आज पाकिस्तान और चीन भारत के प्रतिद्वंद्वी हैं, लेकिन बात जब सहयोगियों या मित्रों की आती है तब मुश्किल हो जाती है। ऐसा तब भी होता है जब बात एक ऐसे प्रतिद्वंद्वी की आती है, जो हमारे उस मित्र का काफी करीबी दोस्त है, जो हमारे एक सहयोगी का कट्टर दुश्मन और हमारे एक दुश्मन का सबसे अहम दोस्त है। जी हां, यह भारी घालमेल है।

शुरुआत चीन-रूस-अमेरिका-चीन-पाकिस्तान के समीकरण से करते हैं। इस बात के काफी सबूत हैं कि रूस, यूक्रेन के बहाने पश्चिमी देशों से अपनी लड़ाई में चीन की मदद के बिना चंद सप्ताह भी नहीं टिक सकता। व्यापार को लेकर चीनी कस्टम विभाग के ताजा आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक साल में चीन की अर्थव्यवस्था सुस्त रही और उसका कुल व्यापार घटा, लेकिन इन दोनों देशों के बीच व्यापार खूब बढ़ा।

इसमें रूस से किए गए निर्यातों का बड़ा योगदान रहा। खासकर अपनी पीठ खुद थपथपाने वाले भारत में यह धारणा काफी फैली हुई है कि हम रूस से जो तेल खरीद रहे हैं वह उसकी अर्थव्यवस्था और युद्ध के प्रयासों की मदद कर रहा है। लेकिन असलियत यह है कि रूसी अर्थव्यवस्था में चीन का योगदान इससे कई गुना बड़ा है।

इसके अलावा आधुनिक सैन्य साजो-सामान की सप्लाई हमेशा एक करीबी संभावना रही है। इसलिए भारत का पुराना दोस्त रूस आर्थिक, राजनीतिक और अंततः सैन्य मामलों में केवल उस एक देश पर वास्तव में निर्भर है, जो लंबे समय से हमारा सबसे जबरदस्त प्रतिद्वंद्वी है और जिसके 60,000 सैनिक हमसे लड़ाई के लिए कमर कसे तैनात हैं। जाहिर है, यह हमारे जटिल समीकरण के पहले हिस्से को सुलझाता है कि आपका प्रतिद्वंद्वी आपके दोस्त का सबसे करीबी दोस्त है।

अब दूसरी पहेली को समझें। यह प्रतिद्वंद्वी (चीन) उस देश के सबसे बुरे दुश्मन (रूस) का सबसे अच्छा दोस्त है, जिस देश को आज आप अपना सबसे जरूरी रणनीतिक सहयोगी मान रहे हैं। यह मैं भारत के प्रधानमंत्रियों और अमेरिका के राष्ट्रपतियों के कई संयुक्त बयानों के आधार पर कह रहा हूं।

इसके अलावा, वही प्रतिद्वंद्वी आपके सबसे करीब के सिरदर्द पाकिस्तान का संरक्षक, दोस्त और मालिक, पहले नंबर का कर्जदाता और सुरक्षा की गारंटी देने वाला मुल्क है। अगर इसे सरल बनाना कठिन है, तो मान लीजिए कि यह उस दुनिया की जटिलताओं को रेखांकित करता हैं, जिसमें हम जी रहे हैं। सैन्य जरूरतों के लिए रूस पर हमारी निर्भरता गहरी है। हमारे 95 फीसदी टैंकों, 70 फीसदी लड़ाकू विमानों और नौसेना के ध्वज-पोत तथा उड़ान भरने वाले एसेट्स को रातों-रात कोई नहीं बदल सकता।

एलएसी के ऊपर अगर बलून आ गया तब रूस क्या रुख अपनाएगा? रूस अगर 1962 की तरह तटस्थ भी रहा तो गनीमत मानिएगा। 1962 में तो सोवियत संघ कहीं ताकतवर था, चीन का वैचारिक बड़ा भाई था। आज समीकरण उलट गया है।

युद्ध में फंसा पुतिन का रूस चीन के एक दरबारी वाली हैसियत में है। इसलिए पिछले दिनों नई दिल्ली में संपन्न हुए ‘रायसीना डायलॉग’ में रणनीति के जानकारों से भरे हॉल में रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लाव्रोव को अपने भारतीय मेजबानों पर ऊंची मुद्रा जताते हुए देखना दिलचस्प था।

लाव्रोव ने अपने ज्यादातर खुशामदी श्रोताओं को याद दिलाया कि भारत और रूस के बीच जो संधि है, उसमें दोनों देश कहते हैं कि उनके बीच एक विशेष एवं विशेषाधिकार सम्पन्न रणनीतिक साझेदारी है। उन्होंने तंज कसते हुए सवाल किया कि बताइए, ऐसी संधि किस दूसरे देश के साथ है?

मुझे यकीन है कि दूसरे लोग ज्यादा स्मार्ट हैं लेकिन मुझे तो पता करना पड़ा कि वे किस संधि की बात कर रहे थे। ऐसा लगता है, वे उस संधि की बात कर रहे थे जिस पर 1993 में पी.वी. नरसिंह राव और बोरिस येल्तसिन ने दस्तखत किए थे। इस संधि ने 1971 की भारत-रूस शांति, मैत्री एवं सहयोग संधि की जगह ली थी।

चूंकि शीतयुद्ध खत्म हो गया था और सोवियत संघ लुप्त हो गया था, भारत को इस बात की जरूरत महसूस हो रही थी कि सोवियत-विघटन के बाद उसके उत्तराधिकारी देश से विशेष संबंध जारी रखा जाए। मूल संधि के अहम अनुच्छेद 9 में जिस आपसी सुरक्षा गारंटी की बात की गई थी, उसे इस नई संधि में जाहिर है, छोड़ दिया गया।

दिल्ली में हुए उस जमावड़े में लाव्रोव को इसकी याद दिलाने की गुस्ताखी शायद ही कोई करता। या यह याद दिलाने की कि पिछले 25 साल से भारत अमेरिका के साथ जो कई संयुक्त बयान या समझौते जारी करता रहा है, उनमें वह एकमात्र जिस महाशक्ति को अपना जरूरी रणनीतिक सहयोगी बताता रहा है, वह अमेरिका है।

उसी 1990 वाले दशक में लाव्रोव की पूर्ववर्ती येवजेनी प्रीमाकोव ने रूस-भारत-चीन के बीच त्रिराष्ट्रीय सहयोग समझौते की बात की थी। लाव्रोव ने याद दिलाया कि वह एक उपयोगी मंच हो सकता है, जिस पर भारत और चीन बिना किसी द्विपक्षीय हिचक या दबाव के अपने विवादों का निबटारा कर सकते हैं।

रूस एक ईमानदार, खामोश मध्यस्थ रह सकता है। संयुक्त राष्ट्र में पिछली बार केवल सात देशों ने उस प्रस्ताव के विरोध में वोट दिया, जिसमें रूस से यूक्रेन पर हमला बंद करने और वहां से बाहर निकलने के लिए कहा गया था।

ये सात देश वही थे जिन पर प्रायः शक किया जाता है- सीरिया, बेलारूस, निकारागुआ, उत्तरी कोरिया, एरिट्रिया, माली, और सातवां बेशक रूस। भारत समेत 32 देशों ने वोटिंग में भाग नहीं लिया। 141 देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। भारत को एक जटिल रणनीतिक दुनिया से निबटना है।

अपने ही बनाए विरोधाभासों से रू-ब-रू
रूस ऐसा दोस्त है जिसे अलग नहीं किया जा सकता और जो चीन पर निर्भर है; स्थायी प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के लिए भी ताकत और पैसे के लिए दूसरा कोई स्रोत नहीं है; और अमेरिका एक जरूरी रणनीतिक सहयोगी है। सरकार अपने ही बनाए विरोधाभासों से रू-ब-रू है। वह पश्चिम विरोधी जनमत को प्रोत्साहित करती है पर अपनी रणनीति इससे उलटी दिशा में तय करती रही है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)