यह कॉलम गौतम अदाणी नहीं बल्कि भारतीय पूंजीवाद के बारे में है। यह भारतीय पूंजीवाद के लिए सबसे कठिन परीक्षा की घड़ी है। 90 के दशक में, जब से भारतीय बाजारों का विस्तार होने लगा और उनका आधुनिकीकरण हुआ, तब से उसे कई संकटों का सामना करना पड़ा है।
इन संकटों में हर्षद मेहता, केतन पारेख आदि के रूप में कई घोटाले शामिल हैं। हर एक के कारण भारतीय बाजारों और आम भारतीयों में विकसित हो रही नई इक्विटी संस्कृति के पंगु हो जाने का खतरा पैदा हुआ। यह इक्विटी संस्कृति नए पूंजीवाद के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
हर घोटाले ने संसद को हिलाकर रख दिया, कई नेकनीयत निवेशकों को कंगाल कर दिया और कुछ बदनीयतों को थोड़े दिनों के लिए ही सही, जेल की भी हवा खानी पड़ी, लेकिन उन घोटालों, और आज जो हुआ है उनमें पांच महत्वपूर्ण अंतर हैं।
एक, उनमें से कोई भी संकट जब खड़ा हुआ था, तब भारतीय बाजार की अर्थव्यवस्था, ग्लोबल मार्केट और अर्थव्यवस्था से नहीं जुड़ी थी। दो, वे सब घरेलू बाजारों के संकट थे, जिनमें वित्तीय या रेगुलेटरी संस्थाओं के घरेलू हस्तक्षेप से या वित्त मंत्रालय से किए गए एक फोन से भी फर्क पड़ सकता था। आज जो संकट खड़ा हुआ है, वह पूरी तरह से ग्लोबल बाजारों में है और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में फैल रहा है।
तीन, अधिकतर पुराने संकट- उदाहरण के लिए केपी-7 (केपी यानी केतन पारेख) उन भारतीय कंपनियों से संबंधित थे, जो अपना अधिकांश कारोबार भारत में चला रहे थे। ताजा संकट तो भारत के सबसे ग्लोबल कॉर्पोरेट से संबंधित है। चार, पुराने संकट यहां उभरे और उनका पर्दाफाश भारत के ही पहरुओं (व्हिसलब्लोअरों) या खोजी पत्रकारों ने किया था।
ताजा संकट का खुलासा एक विदेशी एवं छोटे-से वित्त संस्थान ने किया है। और पांच, यह कोलाहल शुरू करने वाले वो लोग हैं, जो शुद्ध मुनाफा चाहते हैं, जो शेयरों की ‘शॉर्ट सेलिंग’ (शेयरों के मालिक बनने से पहले बिक्री) करके पैसा बनाना चाहते हैं।
उनका स्वार्थ इसमें है कि वे जिस कंपनी में ‘निवेश’ कर रहे हैं, उसके अमेरिका में बेचे जा रहे बॉन्ड्स और गैर-भारतीय बाजार में बेचे जा रहे ‘इन्स्ट्रूमेंट्स’ की ‘शॉर्ट सेलिंग’ करके उसके शेयर की कीमत गिराएं। किसने कहा कि आप शेयर बाजार से केवल तभी पैसा बना सकते हैं जब दाम ऊपर चढ़ें?
जब विदेशी लोग हमारी कंपनियों में निवेश करते हैं और हमारी कंपनियों को विदेशी शेयर बाजार में सूचीबद्ध किया जाता है, जब दुनिया हमारा गुणगान करती है, जब एफडीआई और एफपीआई के आंकड़े ऊपर चढ़ते हैं, तब हम जश्न मनाते हैं।
लेकिन जब गिरावट आती है, तब क्या उसे झेलने की ताकत हमारे अंदर है? पहली बात यह है कि हममें या हमारी सरकार में, वित्तीय संस्थाओं या रेगुलेटरों में इतनी ताकत नहीं है कि ‘बाजार’ नामक इस ताकतवर चीज को काबू कर सकें। दूसरी बात, यह कबूल करना पड़ेगा कि नए खिलाड़ी भी बाजार में आपके सबसे बड़े समूह को पछाड़कर भारी मुनाफा कमा सकते हैं।
अच्छी पूंजीवादी व्यवस्था में बाजारों पर कोई राष्ट्रवादी चश्मा नहीं लगा होता है। अगर पैसे का कोई रंग नहीं होता, तो वह पासपोर्ट भी नहीं रखता और जो लोग बाजार में पैसे से खेलते हैं, उनके लिए पैसे से उनका प्यार ही सर्वोपरि होता है।
तमाम राष्ट्रीय, राजनीतिक या सैद्धान्तिक निष्ठाएं इसके बाद ही आती हैं। इन्हीं वजहों से हम इस ताजा संकट को भारतीय पूंजीवाद के लिए अब तक की सबसे कठिन परीक्षा मान रहे हैं और इस संकट ने बाजार में जब पूरा एक हफ्ता बिता लिया है, तब हमारा निष्कर्ष यह है कि भारतीय पूंजीवाद ने यह परीक्षा पास कर ली है।
कारण, करीब दो सप्ताह बीतने जा रहे हैं और सरकार ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा, किसी रेगुलेटरी संस्था ने बाजार में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया, अदाणी ग्रुप इस झटके का सामना बेहतर तरीके से कर सके इसके लिए उसकी मदद तक करने की कोई कोशिश नहीं की गई। ज्यादा-से-ज्यादा यही किया गया कि नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) ने समझदारी भरा कदम उठाते हुए, अधिक अटकलबाजी को रोकने के लिए मार्जिन भुगतान में वृद्धि कर दी।
शेयर बाजार में जब भारी उथलपुथल मची हो, तब यह करना एनएसई का अधिकार भी है। अदाणी ग्रुप ने इसे भारत और इसकी संस्थाओं को नुकसान पहुंचाने की विदेशी साजिश करार दिया, लेकिन सरकार, वित्त मंत्रालय, रेगुलेटरों और शासक दल के नेतृत्व ने इस पर चुप्पी साध रखी है।
पांच दशकों में भारत की सबसे ताकतवर राजनीतिक सत्ता अगर ऐसी परिस्थिति में इस तरह का संकेत देती है कि इस मामले को कंपनी और बाजार आपस में ही निबटाए, तो यही माना जाएगा कि भारतीय पूंजीवाद अपने पैरों पर खड़ा हो गया है। यह ऐसा ही है मानो ‘कानून को अपना काम करने दो’ की जगह ‘बाजार को अपना काम करने दो’ नया मंत्र बन गया हो।
इसके विपरीत, यह सोचिए कि जब हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत नहीं हुई थी तब ताकतवर भारतीय सत्तातंत्र इस स्थिति में जो करता, वही अगर उसने आज किया होता तो क्या होता? तब ट्रेडिंग को स्थगित करने और जांच शुरू करने जैसे विचार हावी हो जाते। ऐसे किसी कदम की आहट भी हमारे उभरते पूंजीवाद को भारी नुकसान पहुंचा सकती थी।
यह मत कहिए कि यह सब बकवास है, कि कभी ऐसा कुछ होगा। वोडाफोन मामले में पिछली तारीख से किए गए संशोधन से भारत पर दुनिया के भरोसे को जो घाव लगा था, वह अभी तक भरा नहीं है। गनीमत है कि इस तरह के विचार आज नहीं उभर रहे हैं।
बाजार फिर अपना रुख बदलेगा
घाटा भी बाजार का उतना ही बड़ा हिस्सा है, जितना कि मुनाफा है। हिंडेनबर्ग रिपोर्ट ने हमें याद दिलाया है कि अगर आप ऐसे ‘शॉर्ट सेलर’ हैं जो जानकार है और जिसमें कुव्वत है, तो आप ‘घाटे’ से भी मुनाफा कमा सकते हैं। झटके को बाजार में आए बुरे वक्त के रूप में स्वीकार कर लें। बेहतर व्यवसायों और एसेट्स पर ध्यान दें। उम्मीद रखें कि बाजार फिर से आपको चाहने लगेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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