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शेखर गुप्ता का कॉलम:बहस करना अच्छा पर सच्चाई से मुंह न मोड़ें; भारत-अमेरिका ने रणनीतिक मैत्री के इस दौर में भी असहमति जताई

एक वर्ष पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ - Dainik Bhaskar
शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’

विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने दो मसलों पर हुई आलोचना का तल्ख जवाब देकर देश में कुछ लोगों को खुश कर दिया है। ये हैं- रूस से ज्यादा तेल खरीदने का फैसला और भारत में मानवाधिकारों की स्थिति। पहले मसले पर हुई आलोचना का विदेश मंत्री ने करारा जवाब दिया। 2+2 मीटिंग के बाद प्रेस कांफ्रेंस में इस मसले पर सवाल पूछने वाले को उन्होंने याद दिलाया कि यूरोप रूस से एक दोपहर में जितना तेल खरीदता है, उतना भारत ने एक महीने में खरीदा है। लेकिन दूसरे मसले पर उनका जवाब थोड़ी देर से आया।

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भारत में मानवाधिकारों की स्थिति का गैर-जरूरी-सा जिक्र करते हुए चिंता जाहिर की थी। दशकों तक कूटनीति करके पारंगत हो चुके जयशंकर ने इसका तुरंत जवाब नहीं दिया क्योंकि रणनीतिक एकता और गर्मजोशी के प्रदर्शन के लिए आयोजित समारोह में ऐसा करने से प्रतिकूल खबरें बन सकती थीं। लेकिन बाद में एक आयोजन में जयशंकर ने कहा कि अमेरिका में मानवाधिकारों की स्थिति को लेकर भारत को भी कभी-कभी चिंता होती है, खासकर तब जब वहां इससे भारतीय मूल के लोग प्रभावित होते हैं।

उनके इस जवाब पर उम्मीद के मुताबिक इस तरह की प्रतिक्रिया आई कि ‘देखा, अमरीका को सुना दिया!’ मगर मुद्दा क्या यही है? क्या शीर्ष स्तर की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति टीवी पर होने वाली बहसों सरीखी होगी, भले ही वह सभ्य किस्म की हो? यह भी सच है कि अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों को जब-जब निशाना बनाया गया- जैसे हाल में सिखों को निशाना बनाया गया- तब-तब भारत ने आवाज उठाई। लेकिन भारत ने अपने बचाव में जो आक्रामकता दिखाई है और उस पर जो जोशीली प्रतिक्रियाएं हुई हैं उनमें मूल मुद्दा ओझल हो गया है।

सबसे पहली बात तो यह है कि यह दोस्तों के बीच की बातचीत थी। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में दोस्ती में एक-दूसरे की थोड़ी आलोचना भी चलती है, बशर्ते आप पाकिस्तान, रूस या संपूर्ण ‘ओआईसी’ से लेकर चीन न हों। भारत और अमेरिका के बीच दशकों तक तू-तू मैं-मैं चलती रही है। 1950 वाले दशक में नेहरू ने भी चीन, कोरिया और साम्यवाद के बारे में आइजनआवर को उपदेश दिया था।

मानवाधिकारों से लेकर व्यापार और अफगानिस्तान पर लगाए गए प्रतिबंधों तक कई मुद्दों पर भारत और अमेरिका ने आपसी रणनीतिक मैत्री के इस दौर में भी असहमति जताई है। एक दशक पहले तक वे इस बात पर लड़ रहे थे कि अमेरिका ने पाकिस्तान को हथियार देना क्यों जारी रखा है, या हाल में जब भारत ने रूसी एस-400 मिसाइलों की खरीद की थी।

लेकिन दोस्तों को यह भी पता होता है कि मतभेदों का क्या करना है। मानवाधिकारों का मसला पश्चिमी देशों के साथ भारत के रिश्ते में करीब तीन दशकों से तबसे एक कांटा बना हुआ है, जब 1991 में कश्मीर में बगावत की शुरुआत हुई थी। नरसिम्हाराव सरकार ने इसका सख्ती से मुकाबला किया, जैसा कि उसने पंजाब में आतंकवाद से भी किया था। पश्चिम के मानवाधिकार संगठनों ने बड़ी मुहिम चलाई।

भारत की वैश्विक राजनीतिक पूंजी जितनी आज है, उसके एक अंश के बराबर भी उस समय नहीं थी। राव ने बड़ी मजबूती मगर चतुराई से जवाब दिया था कि हम एक लोकतांत्रिक देश हैं, हमारे यहां मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता स्वतंत्र हैं। राव ने पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित और पश्चिमी देशों द्वारा समर्थित प्रस्ताव को भी खारिज करवाया। लेकिन उन्होंने कश्मीर की यात्रा करने पर विदेशी पत्रकारों पर राज्यपाल जगमोहन द्वारा लगाई गई रोक को भी खत्म किया और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन भी किया।

जब हमारे यहां ही यह आयोग है तो विदेशी आयोग का यहां क्या काम? अपने जवाब में जयशंकर ने यह भी कहा कि भारत को बाइडन सरकार की ‘वोट बैंक’ वाली मजबूरियों का एहसास है। अमेरिका में बड़ा मुस्लिम समाज मुख्यतः डेमोक्रेटों को वोट देता है। इस पार्टी के अंदर का ‘प्रगतिशील’ गुट मुस्लिम वोटरों और उनके हितों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखता है। इसलिए हम उनके जवाब से समझ सकते हैं कि उनका इशारा किस तरफ है।

लेकिन क्या हमारा व्यापक राष्ट्रहित, हमारे राष्ट्र की हैसियत, दुनिया में उसकी इज्जत आदि सब कुछ बहसों में जीत-हार से तय होंगे? हमें दुनिया को उपदेश देना बहुत पसंद है। हमारा सुर यह होता है कि हमसे सीखो कि दुनिया में सबसे ज्यादा विविधताओं से भरी विशाल आबादी किस तरह एक शक्तिशाली लोकतंत्र में सद्भाव के साथ रह सकती है।

हम लोकतंत्र (आखिर हम सबसे प्राचीन लोकतंत्र हैं। पश्चिम वालो, जरा वैशाली के नाम से गूगल सर्च कर लो), विविधता (हमने उस तरह अपने आदिवासियों का कत्ल नहीं किया जिस तरह तुमने नेटिव अमेरिकियों का किया) और समानता (हमारे यहां दासता कब थी? वह भी नस्ल के आधार पर?) पर भाषण देने का अधिकार रखते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारा वर्तमान हमारी परंपरा से तालमेल खाता है?

अगर हम अपनी सभी आलोचनाओं का जवाब आलोचक पर ही सवाल उठाने से देते रहेंगे तो क्या हम नैतिक श्रेष्ठता की महत्वाकांक्षा पाल सकते हैं? हमारे समर्थक बेशक हमारे लिए तालियां बजाएंगे लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने भीतर झांकने की, मित्रों की बात सुनने की सलाहियत खो देंगे। भारत से हाल में जो खबरें व तस्वीरें दुनिया में गई हैं, वे लोकतांत्रिक विश्व के अखबारों के पहले पन्नों और टीवी के पर्दों को रंग रही हैं। अपनी दिशा बदलने का यही समय है।

भारत, अमेरिका और मानवाधिकार
अमेरिका मानवाधिकारों के मुद्दे पर भारत की आलोचना तो कर रहा है मगर कश्मीर या पंजाब की बात नहीं कर रहा। माना जा रहा है कि इन दोनों मसलों का निपटारा हो गया है। इसकी जगह वे भारत में अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों, एक्टिविस्टों और मोदी सरकार के आलोचकों के साथ हो रहे बर्ताव की बात कर रहे हैं, हालांकि ईसाई भी अमेरिकी मानस में दर्ज हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)