पंजाब के बठिंडा-फिरोजपुर के बीच हाइवे पर प्रधानमंत्री के काफिले के साथ असल में क्या हुआ, इसके बारे में आपकी समझ इस बात पर निर्भर है कि आप किस राजनीतिक खेमे के साथ हैं। इस मामले से संबंधित तथ्य हैं, तस्वीरें हैं, वीडियो हैं; और हत्या की योजना से लेकर रैली में कम भीड़ के कारण बहानेबाजी के आरोप-प्रत्यारोप हैं। और इन सबके अलावा साजिश के स्वाभाविक दावे भी हैं। आइए तथ्यों पर नजर डालें।
सबसे पहली बात ये कि यह सुरक्षा में भारी, अक्षम्य विफलता है। बात केवल इतनी नहीं कि सुरक्षा प्रोटोकॉल तोड़ा गया। बल्कि पुल पर पीएम की गाड़ी जब फंस गई उसके बाद जो कुछ हुआ उस पर भी ध्यान देने की जरूरत है। गाड़ी पुल के एक किनारे कई मिनट खड़ी रही यानी एक तरफ से वह बिल्कुल असुरक्षित थी। उस तरफ पुल के नीचे जमीन पर या किसी पेड़ पर या गाड़ी में कोई भी हो सकता था।
सामान्य तौर पर उनकी गाड़ी को सड़क के बीच में होना चाहिए था, जिसे चारों तरफ से एसपीजी की गाड़ियां घेरे रहतीं। हमने देखा कि एसपीजी के लोग हमेशा की तरह अगल-बगल खड़े थे, सामने से पर्याप्त रूप से कवर नहीं किया गया था। प्रोटोकॉल में पहली चूक तो यह की गई कि हाइवे ‘सैनिटाइज़’ नहीं किया गया था, जबकि यह कवायद दशकों से की जाती रही है। यह राज्य पुलिस का काम था।
क्या पंजाब पुलिस को नहीं मालूम था कि पीएम उस रास्ते से जाने वाले थे? अगर मालूम था और फिर भी उसने सड़क के दोनों तरफ थोड़ी-थोड़ी दूर पर पुलिसवालों को तैनात करके सड़क को ‘सैनिटाइज़’ करने की कवायद नहीं की, तो सबसे पहले तो इसे उसकी अक्षमता माना जाएगा। अगर उसे यह पता ही नहीं था कि पीएम हवाई मार्ग से नहीं बल्कि सड़क से हुसैनीवाला जा रहे थे, तो यह उसकी अक्षमता ही नहीं बल्कि नौकरी के वक्त सोते रहने जैसा मामला है।
मान लीजिए कि उसे इसके बारे में जानकारी थी लेकिन अचानक आंदोलनकारी जमा हो गए थे, जैसा कि उनके बचाव में कहा जा रहा है, तो यह जानना जरूरी है कि क्या इसकी खबर एसपीजी को तुरंत दी गई? इस सवाल के जवाब से ये पता चलेगा कि साजिश का कौन-सा दावा ज्यादा सही हो सकता है : पहला दावा तो भाजपा का है कि राज्य की कांग्रेस सरकार ने पीएम को जानबूझकर खतरे में डाला।
दूसरा दावा कांग्रेस का है कि चंद मिनट पहले पीएम को बताया गया कि वे जिस रैली को संबोधित करने जा रहे हैं उसमें भीड़ कम जुटी है (ये सही है) इसलिए उन्हें वहां जाने में शर्मिंदगी महसूस होने लगी, और फिर नौटंकी रची गई। राजनेता, खासकर सत्ताधारी नेता सबसे संकटग्रस्त लोग माने जाते हैं। खासकर हमारे जैसे देश में जहां राजनीतिक हत्याओं का लंबा इतिहास रहा है।
नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या करके हमारे गणतंत्र की नींव को शुरू में ही झटका दे दिया था। 1965 के शुरू में, पंजाब के शक्तिशाली मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों को उनके इस्तीफे के कुछ महीने बाद ही सोनीपत (अब हरियाणा में) के पास मार डाला गया। दरअसल, पंजाब में दो मुख्यमंत्रियों की हत्या की गई। दूसरे थे बेअंत सिंह, जिनकी हत्या 1995 में की गई, जब वे सत्ता में ही थे।
बिहार में 1975 में केंद्रीय रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या समस्तीपुर में एक बमकांड में की गई। 1980 का दशक सार्वजनिक हस्तियों के लिए सबसे कठिन रहा, जब उनमें से कई आतंकवाद की भेंट चढ़ गए। उनमें इंदिरा गांधी की हत्या 1984 में, और राजीव गांधी की 1991 में हत्या हुई। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे तब उनकी हत्या की तीन कोशिशें की गईं-14 मई 1985 को वाशिंगटन में, जून 1986 में लीसेस्टर में, और उसी साल गांधी जयंती (2 अक्टूबर) पर दिल्ली के राजघाट में गांधी समाधि पर प्रार्थना के बाद कुछ हास्यास्पद किस्म की कोशिश।
तीन बार गोली चलने की आवाज़ आई, पुलिस ने एक पेड़ पर चढ़े करमजीत सिंह नाम के एक शख्स को गिरफ्तार किया था, देसी कट्टे के साथ जिससे किसी निशाने पर शायद ही गोली दागी जा सकती थी। लेकिन अगला हमला कतई हास्यास्पद नहीं कहा जा सकता।
जे.आर. जयवर्द्धने और वेल्लुपिल्लै प्रभाकरण को ‘राजी’ करने के बाद राजीव गांधी कोलंबो में 30 जुलाई 1987 को जब ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ दिया जा रहा था, तभी परेड में शामिल एक नौसैनिक विजेमुणी विजिता रोहना डि सिल्वा ने अपने राइफल बट से हमला कर दिया, जिसने 1981 में मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात पर हुए हमले की याद दिला दी थी। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) का गठन किया गया। उसे सबसे पहले राजीव गांधी की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी मिली।
उन पर हुए हर हमले के साथ सुरक्षा प्रोटोकॉल में सुधार किया जाता रहा। इस तरह वीवीआइपी सुरक्षा का विश्व स्तरीय, बेहद ताकतवर संगठन तैयार हुआ। गांधी परिवार का मानना है कि वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर की सरकारों ने उन्हें एसपीजी सुरक्षा न जारी रखकर गलती की थी। लेकिन यह मान लेना कितना सही है कि राजीव गांधी को अगर एसपीजी सुरक्षा मिलती रहती तो वह कमर में बम बांधी, चेहरे पर मुस्कराहट बिखेरे उस महिला से बचकर निकल जाते?
श्रीपेरुंबूदूर में हुए उस हत्याकांड से एक दिन पहले ‘इंडिया टुडे’ के संपादक अरुण पुरी और मैंने (तब मैं वहां काम कर रहा था) वाराणसी में चुनाव प्रचार कर रहे राजीव गांधी से मुलाकात की थी। उन्हें बेरोकटोक भीड़ में घुसते देखकर हम परेशान थे। देर रात हो रही एक सभा में जब वे मंच पर आए थे तब कई लोग उन पर मालाएं और फूल फेंक रहे थे। हमने उन्हें बनारस और बक्सर के बीच सड़क किनारे एक छोटे से ढाबे पर पकड़ा था। अरुण पुरी ने उनसे सुरक्षा को लेकर इतने लापरवाह होने पर सवाल किए।
राजीव गांधी ने कहा था कि उन्हें कहा गया है कि वे जनता से काफी कट गए हैं। इसलिए, चेतावनियों के बावजूद वे लोगों से जुड़ना चाहते हैं। इसका जाहिर निष्कर्ष यह है कि सार्वजनिक हस्तियां खासकर चुनाव अभियान के दौरान बहुत शिद्दत से ये दिखाना चाहती हैं कि लोगों के करीब हैं। क्या एसपीजी उन्हें श्रीपेरुंबूदूर में खुद को असुरक्षित समर्थकों के बीच जाने से रोक सकता था? ये तभी मुमकिन है जब सुरक्षा का प्रभारी अफसर इतना प्रभावशाली हो कि वह जिसकी सुरक्षा के लिए तैनात है उस पर हावी हो सके।
यह बॉस को बात मनवाने के लिए मजबूर करने का मामला है। दूसरी ओर, हत्या की कोशिश के नाम पर राजनीतिक हंगामा या नौटंकी तो बेशक की ही जाती है। हमारे इतिहास में ऐसी सबसे मशहूर या बदनाम घटना को भुला दिया गया है। एक चुनाव में, जिसमें कांग्रेस को पहली बार हारने की नौबत लग रही थी, मतदान के एक दिन पहले, 15 मार्च 1977 को खबर आई कि अमेठी के पास किसी ने संजय गांधी की कार पर तीन बार गोली चलाई।
इस वारदात के लिए कभी किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया, न ही इसकी गंभीर कोशिश हुई, इसे हंसी में उड़ा दिया गया। यह एक सस्ती किस्म की चाल थी जो विफल रही। यानी, ऐसा भी होता है। अब फिर से बात करें हाइवे पर फंसे अपने प्रधानमंत्री की। मानना पड़ेगा कि इस मामले में सुरक्षा तंत्र विफल रहा, इसलिए सुधार के कदम उठाए जाएं।
नैतिक साहस दिखाना जरूरी
मानना पड़ेगा कि इस मामले में सुरक्षा तंत्र विफल रहा, इसलिए सुधार के कदम उठाए जाएं। किसी प्रधानमंत्री की सुरक्षा को राजनीतिक ध्रुवीकरण का मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए। फिलहाल उपलब्ध जानकारियों के आधार पर मैं बहस को यह कहकर समाप्त करूंगा कि इस मामले में वायुसेना ने सच्चे पेशेवर रुख का परिचय देते हुए बॉस को साफ कह दिया कि वह उस मौसम में उड़ान नहीं भरेगी। किसी प्रधानमंत्री को मना करने के लिए किस पेशेवर रुख और नैतिक साहस की जरूरत है वह इस उदाहरण से साफ है। ऐसे फैसले ही उसे सुरक्षित रख सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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