हाल ही में संपन्न हुए पर्यावरण सम्मेलन (कोप-26) में इस बात पर बड़ी चर्चा हुई है कि आने वाले समय में सभी राष्ट्र मिलकर वनों की रक्षा भी करेंगे और वनों को लगाने में बड़ी भूमिका निभाएंगे। हालांकि यह बात वैसे पहले ही कोप में तय हुई थी कि जंगल बचाने के लिए हमें गंभीर होना पड़ेगा। हां, भारत ने इस पर भागीदारी नहीं की।
दुनिया के सौ देशों ने इस दिशा में संकल्प किया था, जो करीब दुनिया के 65 फीसदी वन को बनाते हैं। इसी सुर में फिर ब्रिटेन ने लीडरशिप करते हुए वनों के संरक्षण और विस्तार का संकल्प लिया है। इसके लिए करीबन 8.75 बिलियन पॉन्ड की भी सहायता विकासशील देशों को मिलेगी।
इस बार करीब 12 देश आपस में मिलकर इस वादे को पूरा करेंगे। ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के अनुसार हम अभी तक करीबन दो लाख 58 हजार वर्ग किलोमीटर वनों को खो चुके हैं। वैसे भी प्रतिदिन करीब 10 हजार हेक्टेयर वनों का हृास हो जाता है, जो कि विभिन्न तरह के विकास कार्यों में बलि चढ़ जाते हैं।
सवाल यह पैदा होता है कि कोप-26 जैसी अंतरराष्ट्रीय बैठकों से सामने निकल कर क्या आता है? यह सवाल यथावत है कि उनके महत्व को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन फिर भी महत्वपूर्ण मुद्दा है कि ग्लाग्सो की बैठक किस तरह से अपने देश के हित में काम आने वाली है। जबकि पारिस्थितिकी हालात यहां गंभीर हुए हैं। इन बैठकों में भारत बार-बार अपने पक्ष को मजबूत करने की कोशिश कर रहा है, ताकि 21वीं सदी में 1970 तक ही शायद अपने को नेट जीरो कार्बन स्तर पर पहुंच पाए।
भारत का पक्ष अपने आप में सही भी है क्योंकि आज भारत की सीधे कोयले पर निर्भरता 60 फीसदी से ऊपर है और इसकी वर्तमान बढ़ती अबादी की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। वैसे भारत ने प्रयत्न किए हैं कि उसकी ऊर्जा की खपत कहीं और से पूरी हो सके।
2019 तक वैसे भी भारत ने अपनी 9.2 फीसदी निर्भरता अन्य स्रोतों पर बढ़ा दी है। यह भी मानकर चला जा रहा है कि 2030 में 630 गीगावाट, जो कि हमारी 50 प्रतिशत ऊर्जा खपत का हिस्सा होगा, यह सोलर या अन्य गैर पारम्परिक ऊर्जा स्त्रोतों से आएगी। जिसमें करीब सोलर के 280 गीगावाट होंगे। और इसी तरह पवन ऊर्जा से करीब 146 गीगावाट। और इस तरह आने वाले समय में देश अपनी ऊर्जा की खपत कोयले से घटा कर अन्य स्रोतों पर ले जाएगा।
आंकड़ों के अनुसार 2019 में हमारी कोयले पर खपत 63 फीसदी थी, जो कि 2030 में 56% हो जाएगी। कोप-26 में एक नई बात जो सामने आई कि जो देश सबसे बड़े ऊर्जा खपत का कारण भी बने हैं, उनमें पहल की शुरूआत हुई है। मतलब चीन-अमेरिका ने भी चिंतन मंथन किया है।
अंतरराष्ट्रीय बैठकों में हर स्तर पर चर्चाएं होती हैं, लेकिन पल्ले कुछ नहीं पड़ता। बड़ा प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि हम पारिस्थितिकी दृष्टिकोण में पहले अपने देश की चिंता करें या दुनिया की। वैसे तो अमेरिका-चीन की तुलना में प्रति व्यक्ति हमारे यहां एक चौथाई कार्बन फुट प्रिंट है पर फिर भी कार्बन उत्सर्जन को लेकर हम पर अंगुली उठाई जाती है। पर कम कार्बन फुट प्रिंट के बाद भी अगर हमारे हालात इतने गंभीर हों कि सुप्रीम कोर्ट को बार-बार दिल्ली और राज्य सरकारों को बिगड़ती हवा के लिए टोकना पड़ रहा है, तो फिर अंतरराष्ट्रीय चिंताओं का क्या करें। राज्यों और केंद्र स्तर पर तो ग्लासगो जैसी कोप बैठकें हमारे ज्यादा काम नहीं आने वाली है। सवाल यथावत बने रहेंगे।
इसे दो स्तर पर देखे जाने की आवश्यकता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी बहस में अपने पक्ष को रखना बहुत महत्वपूर्ण तो होगा पर अपने स्थानीय स्तर की जवाबदेही हमारी अपनी है। वनों के विस्तार व संरक्षण पर कोप-26 में अंतरराष्ट्रीय समझौते पर भारत ने हस्ताक्षर नहीं किए। कारण जो भी हो, पर घटते वन हमारी भी बड़ी चिंता हैं। यहां गुणवत्ता वाले वनों में कमी आई है। इसका जवाब तो सरकार को ही देना है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत में वनों के हालातों पर सवाल नहीं खड़े होंगे लेकिन ये स्थानीय प्रश्न जरूर हैं। अपने वनों से पहले हमारा ही लाभ है। फिर इनसे हवा, पानी और मिट्टी भी जुड़ी है, इसलिए कोप-26 में अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन कैसा भी हो, पर स्थानीय बिगड़ते हालातों का जवाब तो सरकार को ही देना होगा। वैसे भी वन प्रकृति के केंद्र है। इनमें असंतुलन भारी पड़ेगा। इसलिए वन केन्द्रित पारिस्थितिकी समाधान हर स्तर पर नकारना अपने भविष्य को खतरे में डालने जैसा होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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